सोमवार, जून 3

अपने आप



अपने आप


सुबह आँख खुलते ही
झलक जाता है संसार भीतर  
कानों में गूँजती है कोयल की कूक
हवा का स्पर्श सहला जाता है गाल को आहिस्ता से
कोई जान रहा है हर बात को बिलकुल उसी तरह
जैसे सागर किनारे खड़ा तकता हो लहरों को !

पेट में हलचल होती है क्षुधा से
तो हाथ कुछ डालते हैं मुख में
सूखे गले को जल का स्पर्श भाता है
हाथ संवार देते हैं बिखरे हुए घर को
कदम चल पड़ते हैं दफ्तर की ओर
कोई जान रहा है हर शै को बिलकुल उसी तरह जैसे
अम्बर तले तकता हो उड़ते हुए बादलों को !

मन सोचता है कभी बीती बातें
कभी सपने सजाता है भविष्य के
योजनायें बनाता और बदलता है
कभी डरता और झुंझलाता है
कोई जान रहा है हर ख्याल को बिलकुल उसी तरह जैसे
माँ देखती है चलना सीखते हुए बच्चे को !

लहरें बनती और बिगड़ती हैं
बादल आते और जाते हैं
बच्चा गिर कर संभलता है
हो रहा है न सब अपने आप
बिना किसी करने वाले के ?

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (04-06-2019) को “प्रीत का व्याकरण” तथा “टूटते अनुबन्ध” का विमोचन" (चर्चा अंक- 3356) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. हा, अनिता दी। कई बार ऐसे महसूस होता हैं कि जो कार्य हमें सहज लग रहे हैं आखिरकार वो हो कैसे रहे है? बहुत सटीक अभिव्यक्ति।

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    1. सही कहा ज्योति जी, कितने आश्चर्य की बात है न...!

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  3. बहुत सुंदर। मन को शांति प्रदान करती हुई रचना है अनिताजी।

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  4. स्वागत व आभार मीना जी !

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