सोमवार, अगस्त 3

जो शेष रहा अपना होगा


जो शेष रहा अपना होगा

वह बनकर बदली बरस रहा 
फिर चातक उर क्यों तरस रहा, 
ले जाये कोई बाँह थाम
गर उन चरणों का परस रहा !

जो लक्ष्य गढ़े थे विलीन हुए 
अब पत्तों सा ही उड़ना हो, 
जब डोर बंधी हो जीवन से 
फिर और कहाँ अब जुड़ना हो !

बिखरेगा हिम टुकड़ों सा मन 
कल कल निनाद कर बह जाए,
जो शेष रहा अपना होगा 
तब तक हर पीड़ा सह जाए !

नहीं आयोजन विचारों का 
ना भावों की अब माल बने,
संवाद घटे बस चुप रहकर 
ना शब्दों का अब जाल बुनें !

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