शिशु और वृद्ध
शैशव नहीं जानता दुनियादारी
वह बेबात ही मुस्कुराता है
पालने में पड़े-पड़े..
और भूखा हो जब पेट तो
जमीन आसमान एक कर देता है !
उसका रुदन बंटा नहीं है दिल और दिमाग में अभी
बालक होते-होते बुद्धि सुझाने लगती है
झूठ और सच का फर्क
बढ़ती ही जाती हैं दूरियां दिल और दिमाग की
सीख लेता अपमान या ताड़ना से बचने के लिए
असत्य का आश्रय लेना
जन्म होता है फिर पाखंड का
पर कभी भी सम्भावनाएं मृत नहीं होतीं
जिन्दा रहता है निर्दोष बचपन
ताउम्र हरेक के भीतर
दूरी जितनी बढ़ेगी जिससे
दुःख उसी अनुपात में बढ़ेगा
दुखी होने या रहने को
जब एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है व्यक्ति
तब गिरना काफी हो गया
पर कभी न कभी मुक्ति की चाह
अपना सिर उठाती है
दुःख से मुक्ति, अहंकार से मुक्ति का ही दूसरा नाम है
और यात्रा यदि जारी रही तो
लौट आता है बचपन
एक बार फिर तृप्त जीवन में
वृद्धावस्था के !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 31 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंजीवन चक्र ... एक यात्रा जो बालकाल से से शुरू हो कर वहीँ पहुँच जाती बुढापे तक ...
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी रचना ...
लौट आता है बचपन
जवाब देंहटाएंएक बार फिर तृप्त जीवन में
वृद्धावस्था के !
बिलकुल सही कहा आपने,भावपूर्ण सृजन सादर नमन