शुक्रवार, अगस्त 28

मन नदिया बन प्यास बुझाता

 मन नदिया बन प्यास बुझाता 

सुख-दुःख रूपी तटों के मध्य 

मन की धारा बहती रहती, 

अभी कल्पना की तरंग है 

फिर स्मृति की लहरें उठतीं !

 

जुड़ी रहे यदि नदी स्रोत से 

निर्मल अविरल गतिमय रहती, 

दर्पण सी उसकी काया में 

छवि जग की प्रतिबिम्बित होती !

 

बिछड़ गयी जो अपने घर से 

मरुथल में जाकर खो  जाती, 

या फिर कोई सरवर, पोखर 

बनकर सीमित, दूषित होती !

 

किन्तु कहीं भी कैसा भी हो 

जल तो जल है पथ पायेगा,

तप कर कोई बादल बनकर 

बरस शिलाओं पर जायेगा !

 

मन नदिया बन प्यास बुझाता 

सुख की सुंदर फसल उगाता,

वही हुआ दूषित माया से 

जंगल दुःख के भी पनपाता !

 

चंचल मीन भावनाओं की 

क्रोध, बैर के ग्राह तैरते, 

मन तो मन है पल-पल बदले 

लोभ, मान के भँवरे पड़ते !

 

मन ही राम कृष्ण को चाहे 

मन ही बन मन्थरा सिखाये, 

जग को बैरी कभी मानता

गीत कभी उसके ही गाये !


8 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२९-०८-२०२०) को 'कैक्टस जैसी होती हैं औरतें' (चर्चा अंक-३८०८) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब ल‍िखा अनीता जी, आज काफी द‍िनों बाद आपके ब्लॉग पर आना हुआ ...मन ही राम कृष्ण को चाहे

    मन ही बन मन्थरा सिखाये,

    जग को बैरी कभी मानता

    गीत कभी उसके ही गाये ! क्या बात है ...वाह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. स्वागत है अलकनन्दा जी,इसी तरह आते रहिये

      हटाएं
  3. मन नदिया बन प्यास बुझाता

    सुख की सुंदर फसल उगाता,

    वही हुआ दूषित माया से

    जंगल दुःख के भी पनपाता !
    मन ही है जो सुख और दुख दोनों का अनुभव कराता है
    वाह!!!
    लाजवाब सृजन।

    जवाब देंहटाएं