रौशनी बन झर रहा तू
चैन दिल का, सुकूं मेरा
प्रीत का सागर रहा है,
जहाँ रुकते कदम, झुकते
नयन, तेरा दर रहा है !
कहाँ जाना क्या पाना
तू ही मंजिल बन मिला है,
तेरे दम से छूट गम से
मन पंकज यह खिला है !
दीप जलते हैं हजारों
रौशनी बन झर रहा तू,
बह रहा बन एक दरिया
प्यास खुद की भर रहा तू !
नित लुटाता मोतियों सा
इक खजाना जिंदगी का,
खोल देता ख़ुशी-गम में
राज अपनी बन्दगी का !
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-08-2020) को "अयोध्या जा पायेंगे तो श्रीरामचरितमानस का पाठ करें" (चर्चा अंक-3783) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना ...
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