रविवार, अगस्त 2

रौशनी बन झर रहा तू

रौशनी बन झर रहा तू


चैन दिल का, सुकूं मेरा 
प्रीत का सागर रहा है,
जहाँ रुकते कदम, झुकते 
नयन, तेरा दर रहा है !

कहाँ जाना क्या पाना 
तू ही मंजिल बन मिला है, 
तेरे दम से छूट गम से 
मन पंकज यह खिला है !

दीप जलते हैं हजारों 
रौशनी बन झर रहा तू, 
बह रहा बन एक दरिया 
प्यास खुद की भर रहा तू !

नित लुटाता मोतियों सा 
इक खजाना जिंदगी का, 
खोल देता ख़ुशी-गम में 
राज अपनी बन्दगी का !

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-08-2020) को   "अयोध्या जा पायेंगे तो श्रीरामचरितमानस का पाठ करें"  (चर्चा अंक-3783)    पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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