गुरुवार, जुलाई 21

अंतर में इक दीप जलाये

अंतर में इक दीप जलाये


खुद का खुद से मिलना कैसा 

कली-पुष्प में खिलने जैसा, 

लहर सिंधु में ज्यों खो जाये 

सुरभि चमन में भरने जैसा !


नभ में कोई खुले झरोखा 

जल का इक सरवर दिख जाये, 

छुपी शिला में मूरत कोई 

मन की आँखों से लख जाये !


ध्वनियों का इक मधुरिम आकर 

निशदिन कोई तान सुनाये, 

अम्बर में अनगिन सूरज हैं 

अंतर में इक दीप जलाये !


पलक झपकते ही जैसे यह 

जग पल में विलीन हो जाता, 

अद्भुत मिलन घटे जब तुझसे 

जगत कहीं नजर नहीं आता !


11 टिप्‍पणियां:

  1. हृदय का दीप जले तो जग उजियारा है!!बहुत सुंदर रचना!!

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  2. नभ में कोई खुले झरोखा

    जल का इक सरवर दिख जाये,

    छुपी शिला में मूरत कोई

    मन की आँखों से लख जाये !

    पूरी रचना ही कमाल है । बहुत सुंदर प्रस्तुति।

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को 'झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के' (चर्चा अंक 4498) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  5. कितना सुंदर चित्रण किया है इस कविता में। मन के आंतरिक भाव ही बाहरी सबकुछ देखने की दृष्टि देते है।
    बहुत सुंदर कविता है दी
    सादर

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  6. अंतर्मन में दीप जले तो सारे जग में उजियारा फैलते देर नहीं लगती
    बहुत सुन्दर रचना

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  7. खुद का खुद से मिलना कैसा

    कली-पुष्प में खिलने जैसा,

    वाह!!!
    खुद से मिलना खुदा से मिलना
    लाजवाब सृजन।

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  8. नभ में कोई न कोई झरोखा खुल ही जाएगा । मधुर ।

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  9. अनुपमा जी, संगीता जी, अपर्णा जी, कविता जी, सुधा जी व नूपुर जी आप सभी का स्वागत व आभार!

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