गणपति अथर्वशीर्ष संस्कृत भाषा में एक लघु उपनिषद है। यह पाठ गणेश को समर्पित है, जो बुद्धि और सीखने का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। इसमें कहा गया है कि गणेश शाश्वत अंतर्निहित वास्तविकता, ब्रह्म के समान हैं। यह स्तोत्र अथर्ववेद से जुड़ा हुआ है। इसका पाठ कई रूपों में मौजूद है, लेकिन सबमें एक ही संदेश दिया गया है। गणेश को अन्य हिंदू देवताओं के समान, परम सत्य और वास्तविकता के रूप में, सच्चिदानंद के रूप में, और हर जीवित प्राणी में आत्मा के रूप में तथा ॐ के रूप में वर्णित किया गया है।
श्री श्री रविशंकर जी ने ने इस स्तोत्र की बहुत सुंदर और सरल व्याख्या की है । सर्वप्रथम शांति पाठ किया गया है। ईश्वर से यही प्रार्थना करनी है कि जब तक जीवन रहे, हम शुभ देखें, शुभ ही सुनें. केवल काँटों को नहीं फूलों को भी देखें. हमारी वाणी में स्थिरता हो, अपने वचन पर हम स्थिर रह सकें. ऐसी वाणी न बोलें जिससे किसी को आघात पहुँचे। वाणी की कुशलता ही जीवन की कुशलता है. सत्य वचन बोलें पर मधुरता के साथ बोलें. यदि वाणी में त्रुटि रह जाती है तो दिल अच्छा होने पर भी हमारे संबंध बिगड़ने लगते हैं. जब तक हम इस धरा पर हैं, हमारा जीवन देवताओं के काम में लग जाये. हमसे बड़े काम हों. हमारा जीवन देव के हित में लग जाये.
इंद्र भी हमारे लिए कल्याणकारी हो. हम अपने आप में स्थिर हो जाएँ. अनिष्टकारी चेतना भी हमारे लिए अनर्थकारी न हो. इंद्र हमारी रक्षा करे. हे गणपति ! तुम ब्रह्म हो, जिसमें जड़, चेतन सब कुछ समाया है. ब्राह्मी चेतना तुम ही हो. तुम ही कर्ता हो. तुम्हीं मेरे दिल की धड़कन चलाते हो, मेरी श्वसन क्रिया भी तुम्हारे कारण ही है. प्रकृति का सारा काम तुम्हारे कारण है. समय-समय पर जो भी परिवर्तन हो रहा है, नदियाँ बह रही हैं, सूरज का उगना आदि सब कुछ तुम्हारे कारण है. विचारों व भावों का उमड़ना भी तुमसे ही है. जैसे एक मकड़ी अपने ही स्राव से जाला बनाती है वैसे ही सब कुछ तुमसे ही हो रहा है. इसे धारण करने वाले भी तुम हो. इन सबको समाप्त करने वाले भी तुम हो. फूल खिलता है फिर मुरझा जाता है, प्राणी जन्मते हैं फिर विनाश को प्राप्त होते हैं. तुम ही सब कुछ हो. यहां जो कुछ भी है वह तुम ही हो. मैं भी तुम ही हूँ. मेरा जीवन तुमसे ही है. बोलने वाले तुम हो, सुनने वाले भी तुम हो. तुम्हीं देने वाले हो, तुम्हीं पकड़ कर रखने वाले हो. तुमसे कुछ बचा नहीं है. सही- गलत, अच्छा-बुरा सब कुछ तुमसे है. तुम मेरे पीछे हो, तुम्हीं आगे हो. पूर्वज भी तुम हो, संतति भी तुम हो. प्रश्न भी तुम हो, उत्तर भी तुम हो. दाएं -बाएं भी तुम हो. स्त्री-पुरुष दोनों तुम हो. सरल और कठिन दोनों तुम हो. विद्या प्राप्ति को कुशलता से किया जाता है, वह दक्षता भी तुम हो. गंतव्य भी तुम हो और मेरे अस्तित्त्व का आधार भी तुम हो. मेरा मूल भी तुम हो, और उद्देश्य भी तुम हो. मनुष्य जन्म मिला इसका कारण तुम हो, देवत्व को प्राप्त करना है, वह भी तुम हो.
तुम सब जगह से मेरा पालन करो, तुम पालनहार हो. मैं तुम्हारे शरणागत हूँ. वाणी के रूप में तुम हो, वाणी के पार की तरंग भी तुम हो. तुम चिन्मय हो. आनंदमयी चेतना तुम हो. आनंद के भी परे ब्रह्म तुम ही हो. तुम सच्चिदानंद हो. तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो. अभी इसी क्षण तुम हो ! तुम ज्ञान भी हो और विज्ञान भी हो. बुद्धि के रूप में तुम ही हो. यह जगत तुमसे उपजा है, और तुममें ही स्थित है. हरेक की इच्छा का लक्ष्य तुम ही हो. तुम भूमि हो, जल तुम हो, आकाश, धरा, अग्नि सब तुम हो. प्रपंच से परे भी तुम हो.
वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा वाणी भी तुम हो. तुम तीनों गुण के परे हो. तीनों अवस्थाओं के परे तुम हो. तीन देहों के परे हो. ज्ञान को भी तिलांजलि देकर जब कोई गुणातीत हो जाता है, वह गणपति को प्राप्त होता है. भूत, वर्तमान, भविष्य तीनों में तुम हो. तीनों कालों के परे भी तुम हो.
मूलाधार चक्र में तुम सदा ही हो. इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों शक्तियों के रूप में तुम हो. ध्यान में स्थित योगी तुम्हें पाते हैं. ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, सूर्य, चन्द्र, ब्रह्म, प्रजापति, भूर, भुवः, स्व आदि लोक तुम्हीं हो. मन्त्र में देवता बसते हैं. जगत देवताओं के अधीन है, देवता मंत्र में हैं. गम गणपतये नमः, पहले ग फिर अ और अंत में म, ग अर्थात अवरोध, अ मध्य है. म पूर्णता का प्रतीक है. जो बाधा को दूर करे, वह तुम हो। एक दन्त अर्थात एकाग्रता, एकमुखी चेतना, देने वाले, हमें उस ज्ञान और ध्यान में प्रेरित करो.
गणक ऋषि ने अपने ध्यान में इस मन्त्र को देखा, ऐसे गणपति मुझे प्रेरित करें, मेरे मस्तिष्क को तेजवान बनायें. तुम इस जगत के कारण हो, तुम अच्युत हो, तुम चतुर्भुज वाले हो, इस रूप में तुम मेरे भीतर हो, लाल पुष्प से तुम्हारी पूजा होती है. मूलाधार चक्र में लाल रंग है । पहले रूप में उसे देखा, फिर रूप के साथ संबंध बनाने के लिए कहा गया. प्रकृति और पुरुष से परे तुम हो. योगियों में जो बड़े योगी हैं, ऐसे ध्यानी व योगी को तुम वर देते हो.
जो इसका अर्थ समझते हैं, वे ब्रह्म तत्व को प्राप्त करते हैं. यह रहस्य उन्हें ही देना चाहिए जो शिष्य हों, जो सौम्य हो. जो बार-बार इस ज्ञान को अपने में दोहराते हैं, उनकी सब कामनाएं पूरी हो जाती हैं. जो इस ज्ञान में अभिषिक्त हो जाते हैं. उनकी वाणी में बल आ जाता है. इस विद्या को पाने के लिए चतुर्थी के दिन इसका परायण करो. कुशलता से इस ज्ञान को पकड़ लें तो सब प्राप्त हो जाता है. इस ज्ञान को अच्छी तरह समझने से यश, सम्पत्ति मोक्ष सब मिल जाता है. इसका जाप करने से हजारों को आनंद प्राप्त होता है.
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