छिपा बूँद में भी इक सागर
छोटा सा दिल लघु सी चाहत
उससे बनती मन की कारा,
उठो आज अम्बर को छू लो
है अनंत सामर्थ्य तुम्हारा !
शुभ विवेक, आनंद छुपा है
अन्न, प्राण, मन में ही अटके
अपने ही बल से अनजाने
बार-बार इस भव में भटके
एक अपार ऊर्जा अविरत
फैली है जो भीतर-बाहर,
बनो माध्यम बहना चाहती
छिपा बूँद में भी इक सागर !
शांति,प्रेम ये शब्द नहीं हैं
मूर्त रूप में भीतर रहते,
मनस की यह अपार ऊर्जा
क्यों न बिखेरें सहज विहँसते !
जीवन इक अनमोल कोष है
प्रतिभिज्ञा भर इसकी कर लें,
साथ लिए जाएँ जग से क्यों
तृप्त हुए खुद इसे लुटा दें !
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंशुभ विवेक, आनंद छुपा है
जवाब देंहटाएंअन्न, प्राण, मन में ही अटके
अपने ही बल से अनजाने
बार-बार इस भव में भटके ।
सच्ची बात कह दी । ऐसे ही तो भटकते रहते । सुंदर रचना ।
जीवन इक अनमोल कोष है
जवाब देंहटाएंप्रतिभिज्ञा भर इसकी कर लें,
साथ लिए जाएँ जग से क्यों
तृप्त हुए खुद इसे लुटा दें !
....बहुत ही सुंदर भवाभिव्यक्ति।
सुंदर रचना
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