सोमवार, अगस्त 29

सदा गूँजते स्वर संध्या के

 सदा गूँजते स्वर संध्या के


ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते, 

बसे वसन्त सदा अंतर में, 

 रात्रि-दिवस का मिलन प्रहर हो

  सदा गूँजते स्वर संध्या के !


गुंजित वर्षा काल में बाग 

कोकिल के मधुरिम गीतों से,

अंतर उपवन सदा महकता 

ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !


समता का जहाँ वायु विचरे

रस की खानों से मधु रिसता,

शशधर उर शीतल आभा दे 

भीगा हुआ प्रेम भी झरता !


मानसरोवर  के थिर जल में 

प्रातः जाग निज मुखड़ा देखे,

गोधूलि में विश्रांति पाता 

दिन भर विचरण करता जग  में  !


6 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-8-22} को "वीरानियों में सिमटी धरती"(चर्चा अंक 4537) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  2. बहुत बहुत आभार कामिनी जी !

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