सदा गूँजते स्वर संध्या के
ग्रीष्म-शीत आते औ' जाते,
बसे वसन्त सदा अंतर में,
रात्रि-दिवस का मिलन प्रहर हो
सदा गूँजते स्वर संध्या के !
गुंजित वर्षा काल में बाग
कोकिल के मधुरिम गीतों से,
अंतर उपवन सदा महकता
ब्रह्म कमल की मृदु सुगन्ध से !
समता का जहाँ वायु विचरे
रस की खानों से मधु रिसता,
शशधर उर शीतल आभा दे
भीगा हुआ प्रेम भी झरता !
मानसरोवर के थिर जल में
प्रातः जाग निज मुखड़ा देखे,
गोधूलि में विश्रांति पाता
दिन भर विचरण करता जग में !
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-8-22} को "वीरानियों में सिमटी धरती"(चर्चा अंक 4537) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
स्वागत व आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभार कामिनी जी !
जवाब देंहटाएंवाह लाजबाव सृजन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंभाव पूर्ण अभव्यक्ति ।।
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