नयनों में नित नव साध रहे
मृदु छंद बहा, मकरंद बहा
जब वे अनजाने हाथ गहे,
जीवन में शुभ सन्तोष जगा
नयनों में नित नव साध रहे !
लय, ताल, सुगम सध जाते सुर
जब अनदेखे नाते जुड़ते,
पंछी, पादप, चाँद, सूर्य से
नेह भरे संदेशे मिलते !
जिसके तट पर मानस ठहरे
सरिता अंतर में उग आती,
जन्मों की तृप्ति कराये जो
अजस्र धारा बहती जाती !
गंध धरा से, रंग गगन से
सरसिज खिला पंक में कोमल,
जल से जुड़ी मूल नभ से तन
पवन झुलाता अम्बुज श्यामल !
अंतर्कमल चेतना का जब
महासरोवर में खिलता है,
प्रकृति माँ की भरे सुवास उर
जग से पुलकित हो मिलता है !
सर्वत्र आनन्द ही आनन्द!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार प्रतिभा जी!
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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