शनिवार, अगस्त 31

जागरण

जागरण 


रात ढलने को है 

झूम रहा हर सिंगार हौले-हौले 

बस कुछ ही पल में 

हर पुष्प डाली से झर जाएगा 

श्वेत कोमलता से 

धरा का आँचल भर जाएगा 

कुनमुनाने लगे हैं पंछी बसेरों में 

दूर से आ रही कूक 

सूने पथ पर कदम बढ़ा रहे  

मुँह अंधेरे उठ जाने वाले 

उषा मोहक है 

उसकी हर शै याद दिलाती  

उस जागरण की 

जब चिदाकाश पर उगने को है

आत्मा का सूरज 

कुछ डोलने लगा है भीतर 

और झर गई हैं अंतर्भावनाएँ 

उसके चरणों में 

 गूँजने लगा है कोई गीत

 सहला जाता है अनाम स्पर्श

विरह की अग्नि में तपे उर को 

 भोर की प्रतीक्षा में 

यह अहसास होने लगा है 

एक दिन ऐसी ही होगी 

अंतर भोर !



11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत आभार दिग्विजय जी !

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  2. विरह की अग्नि में तपे उर को
    भोर की प्रतीक्षा में
    यह अहसास होने लगा है
    एक दिन ऐसी ही होगी
    अंतर भोर !

    वाह्ह्ह क्या बात अंतस को छू लेनी वाली पंक्तियाँ

    सुंदर शानदार
    वंदन नमन

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  3. लाजवाब सृजन।
    सुंदर प्रस्तुति रात ढलने से दिन निकलने तक।

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  4. भोर के आगमन पर प्रकृति में संपादित होने वाली गतिविधियों का सुन्दर वर्णन । सादर नमस्कार अनीता जी !

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