शुक्रवार, अगस्त 23

चुपके से जब दिल की साँकल

चुपके से जब दिल की साँकल 


दिल की गहराई में शायद 

गोमुख एक छिपा रखा है, 

गंगा जिस दिन बह निकलेगी 

उस दिन सारे राज खुलेंगे !


सारे पत्थर ‘मैं’ और ‘तू’ के 

चूर चूर हो बह जाएँगे, 

छलक-छलक कर जल के धारे

रस में हमें भिगो जाएँगे !


कितनी परिचित सी है गाथा 

वह अनमोल घड़ी आयी थी,  

चुपके से जब दिल की साँकल 

तुमने आकर खड़कायी थी !


17 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 25 अगस्त 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बहुत मधुर बहुत बहुत सराहनीय

    जवाब देंहटाएं
  3. ''...
    चुपके से जब दिल की साँकल
    तुमने आकर खड़कायी थी !
    ...''

    प्रेम की अनुभूति हुई। प्रेम का लौटना सबसे सुखद पल होता है। बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ।
    आज मुझे एक नया शब्द 'साँकल' भी मिला। धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वाक़ई प्रेम बार-बार लौटता है पर कभी चुकता नहीं,स्वागत व आभार !

      हटाएं
  4. सही कहा है आपने, स्वागत व आभार !

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह ! कितनी सुंदर अभिव्यक्ति है, एकदम दिल को छू गई. कई बार पढ़ी.

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर।
    दिल को छू गई।

    जवाब देंहटाएं