सोमवार, अगस्त 26

मन

मन 


मन कहानी पर पलता है 

क्षण-प्रतिक्षण नयी-नयी बुनता है 

अपनी रास न आये तो

औरों की लेकर चटखारे सुनता है !


अनादि काल से सुनते आ रहे हैं 

बच्चे कहानियाँ 

मन उनसे ही पोषित होता 

कल्पना के नगर गढ़ता है 

खो जाता भूल-भुलैयों  में 

सपनों में जगता है !


मन कहानियों का प्रेमी है 

गढ़ लेता है नायक स्वयं ही 

खलनायक भी चुनता है 

फिर क्या हुआ ?

यही चलाता है उसे 

सच से घबराता है !


ख़ुद ही सवाल उठाता 

जवाब भी बन जाता है 

मन में चलता है नाटक 

परदा कभी न गिरता है !


शब्दों का घेरा इक 

इर्द-गिर्द डाल लेता 

उस पार क्या है 

जान नहीं पाता 

अपने ही महलों में 

रात-दिन विचरता है 

मन कहानी पर पलता है !


10 टिप्‍पणियां:

  1. वाह्ह ...बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
    सस्नेह सादर।
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    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २७ अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. सच्ची ! मन कहानियों पर ही पलता है. अपने पास ना हो तो उठाकर, चुराकर, माँगकर ले आता है दूसरों से...
    गज़ब की रचना है आदरणीया अनिता जी.

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