मंगलवार, अगस्त 13

पीड़ा

पीड़ा 

ऐसी ही तो होती है पीड़ा

जैसे जम गया हो भीतर 

उदासी का एक पर्वत  

अवरोधित हो गयी हो

अविरल धारा 

जो बहा करती थी निर्द्वंद्व !

तरस रहा हो प्रेम का पंछी 

भरने को उड़ान 

क़ैद है शिशु ज्यों 

माँ के गर्भ में

समय से ज़्यादा 

पा रहा है पोषण 

पर तृप्त नहीं  

जन्मना चाहता है 

हवाओं में सांस लेना 

खुली धूप में चलना 

दौड़ना चाहता है 

पाना चाहता है तुष्टि 

प्रकृति के सान्निध्य में ! 


9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 14 अगस्त 2024को साझा की गयी है....... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. जो पीड़ा किसी प्रिय के सान्निध्य में तरल बनकर बाहर आ जाय वह आनंद। जो प्रिय के अभाव में अंदर ही जमी रह जाय वह घुटन।
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।

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    1. सही कहा है आपने, पीड़ा जब बह जाती है तो जो शेष रह जाता है वह आनंद है, आभार !

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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