मिलन
जैसे कोई अडिग हिमालय
मन के भीतर प्रकट हो रहा,
उससे मिलना ऐसे ही था
उर उसका ही घटक हो रहा !
छूट गयी हर उलझन पीछे
सम्मुख था एक गगन विशाल,
जिससे झरती थी धाराएँ
भिगो रही थीं तन और भाल !
डूबा था अंतर ज्यों रस में
भीतर-बाहर एक हुआ था,
एक विशुद्ध चाँदनी का तट
जैसे चहूँ ओर बिखरा सा !
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