बुधवार, दिसंबर 11

मिलन


मिलन 


जैसे कोई अडिग हिमालय 

मन के भीतर प्रकट हो रहा, 

उससे मिलना ऐसे ही था 

उर उसका ही घटक हो रहा ! 


छूट गयी हर उलझन पीछे 

सम्मुख था एक गगन विशाल, 

जिससे झरती थी धाराएँ 

भिगो रही थीं तन और  भाल !


डूबा था अंतर ज्यों रस में 

भीतर-बाहर एक हुआ था, 

एक विशुद्ध चाँदनी का तट 

जैसे चहूँ ओर बिखरा सा !




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