गुरुवार, दिसंबर 19

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता


मुक्त चेतना 

उड़ जाती है अनंत की ओर 

अब कल्पनाओं की दीवार 

आड़े नहीं आती 

भरभरा कर गिर जाती है 

जैसे हवा में उठा रेत का महल 

अंततः वह एक छाया ही तो है !

 

उस असीम को 

अनुभव करके ही 

होती है तृप्त 

अनायास ही चेतना !


पंछी के पैरों में ज़ंजीरें नहीं बंधी 

वह चाहे तो उड़ सकता है 

पिंजरा खुला है 

हर बंधन ढीला है 

एक भ्रम है 

 स्वतंत्र है हर आत्मा

स्वतंत्रता उसका 

जन्मसिद्ध अधिकार है !



1 टिप्पणी:

  1. स्वतंत्रता भ्रम ही तो है। बहुत गहन भाव लिए सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।
    ------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २० दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं