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शुक्रवार, नवंबर 20

प्रेम से कोई उर न खाली

 


प्रेम से कोई उर न खाली
 

एक बूंद ही प्रेम अमी की

जीवन को रसमय कर देती,

एक दृष्टि  आत्मीयता की

अंतस को सुख से भर देती !

 

प्रेम जीतता आया तबसे

जगती नजर नहीं आती थी,

एक तत्व ही था निजता में

किन्तु शून्यता ना भाती थी !

 

 स्वयं शिव से ही प्रकटी  शक्ति 

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !

 

हुए एक से दो थे जो तब

 एक पुन: वे  होना चाहते, 

दूरी नहीं सुहाती पल भर

प्रिय से कौन न मिलन मांगते !

 

खग, थलचर या कीट, पुष्प हों

प्रेम से कोई उर न खाली,

मानव के अंतर ने जाने

कितनी प्रेम सुधा पी डाली !

 

करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य

ढाई आखर सभी पढ़ रहे,  

अहंकार की क्या हस्ती फिर

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !   

शनिवार, अक्टूबर 3

लुटा रहा वह धार प्रीत की


लुटा रहा वह धार प्रीत की 


 

जीवन के इस महाविटप पर 

दो खग युगों-युगों से बसते, 

एक अविचलित सदा प्रफ्फुलित 

दूजे के पर डोला करते !


लुटा रहा वह धार प्रीत की 

दूजा  फल कटु-मृदु खोज रहा, 

इक है निःशंक निज गरिमा में 

कब दूजे को निज बोध रहा !


उड़ जाता है वह दूर दूर 

संघर्षों का अनुयायी है, 

नव नीड़ रचे ढूंढ प्रियजन 

अकुलाहट हिस्से आयी है !


फिर इक दिन तो ऐसा होगा 

बल कोई न पाँखों में रहा, 

नजरें फिर मोड़ उसे देखे 

जो सदा प्रतीक्षित था तकता !


वह घड़ी अनूठी ही होगी 

जब मिलन सुहृद से घट जाये, 

विमल असीम स्नेह से पूरित 

दो पंछी एक हुए गायें !




शुक्रवार, फ़रवरी 24

कभी पवन का झोंका कोई




कभी पवन का झोंका कोई


नीरव दोपहरी में छन-छन
किरणें वृक्ष तले सज जातीं,
कभी हवा के झोंके संग इक
लहराती पत्ती बिछ जाती !

मधु संचित करते कुसुमों से
भंवरे, तितली अपनी धुन में,
श्वेत श्याम कबूतर जब तब
जाने क्या चुगते बगिया में !

कभी पवन का झोंका कोई
बिखरा जाता पाटल पल्लव,
मुंदने लगती आँख अलस भर
भर जाता प्राणों में सौरव  !

 कलरव करते खगअविकल
जाने क्या कहते गाते हैं,
सृष्टि कितने भेद छुपाये
देख-देख लब मुस्काते हैं !

नील वितान तना है ऊपर
प्रहरी सा निर्भय करता है,
धरा समेटे निज अंक में
जीवन यूँ पल-पल खिलता है ! 

सोमवार, अगस्त 31

एक ही है वह

एक ही है वह

फूल नहीं ‘खिलना’ उसका
खग में भी ‘उड़ना’ भाए,
जग का ‘होना’ ही सुंदर है
‘बहना’ ही नीर कहलाए !

खिले ‘वही’ पुष्पों में कोमल
है उड़ान ‘उसके’ ही दम से,
‘उसका’ होना ही जगती का
वही ‘ऊर्जा’ नीर बहाए !

शनिवार, मार्च 14

कौन भर रहा प्रीत प्राण में

कौन भर रहा प्रीत प्राण में


कौन सिखाए उड़ना खग को
नीड़ बनाना व इतराना,
तिरना हौले-हौले नभ में
दूर देश से वापस आना !

कौन भर रहा प्रीत प्राण में
शावक जो पाता हिरणी से,
कौन खड़ा करता वृक्षों को
पोषण पायें वे धरणी से !

सागर से जाकर मिलना है
नदियों को यह चाहत देता,
प्यास जगाता पहले उर में
जल शीतल बन राहत देता !

जाने कब से चला आ रहा
सृष्टि चक्र यह अनुपम अविरत,
रस की ये बौछारें रिमझिम
टपक रही जो आभा प्रमुदित !  

मंगलवार, अगस्त 5

उर उसी पी को पुकारे

उर उसी पी को पुकारे


झिलमिलाते से सितारे
झील के जल में निहारें,
रात की निस्तब्धता में
उर उसी पी को पुकारे !

थिर जल में कीट कोई
खलबली मचा गया है,
झूमती सी डाल ऊपर
कोई खग हिला गया है !

दूर कोई दीप जलता
राह देखे जो पथिक की,
कूक जाती पक्षिणी फिर
नींद खुलती बस क्षणिक सी !

स्वप्न ले जगत सारा
रात्रि भ्रम जाल डाले,
कालिमा के आवरण में
कृत्य कितने ही निभा ले !