बुधवार, दिसंबर 15

नव गीत जब रचने को है

नव गीत जब रचने को है

कैद पाखी क्यों रहे जब आसमां उड़ने को है,
सर्द आहें क्यों भरे नव गीत जब रचने को है !

सामने बहती नदी ताल बन कर क्यों पलें,
छांव शीतल जब मिली धूप बन कर क्यों जलें !

क्षुद्र की क्यों मांग जब उच्च सम्मुख हो खड़ा,
क्यों न बन दरिया बहे जब प्रेम भीतर है बड़ा !

तौलने को पर मिले भार दिल में क्यों भरें,
आस्था की डोर थामे मंजिलें नई तय करें !

गान उसके गूंजते हैं शोर से क्यों जग भरें,
छू रहा हर पल हमें पीड़ा विरह की क्यों सहें !

जाग कर देखें जरा हर ओर उसकी ही छटा,
प्राण बन कर साथ जो छा गया बन कर घटा !

हर रूप के पीछे छिपा जो प्राप्य अपना हो वही,
हर नाम में बसता है वह नाम जिसका है नहीं !

अनिता निहालानी
१५ दिसम्बर २०१०

4 टिप्‍पणियां:

  1. अनीता जी,

    क्या कहूँ....बस यही कह सकता हूँ ....सुभानाल्लाह ......हर पंक्ति दिल को छू लेने वाली....कोई किस क़दर किसी से कम नहीं......बहुत ही सुन्दर लगी ये कविता....गुनगुनाने को जी चाहता है........और आखिरी बात बहुत ही पसंद आई.....

    'हर नाम में बसता है वह नाम जिसका है नहीं '

    इस पोस्ट के लिए आपको ढेरों शुभकामनायें|

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  2. पहली बार आपके ब्लॉग पर आई. आपकी रचनाएँ तो बहुत खूबसूरत हैं..बधाई.

    'सप्तरंगी प्रेम' के लिए आपकी प्रेम आधारित रचनाओं का स्वागत है.
    hindi.literature@yahoo.com पर मेल कर सकती हैं.

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  3. तौलने को पर मिले भार दिल में क्यों भरें,
    आस्था की डोर थामे मंजिलें नई तय करें

    बहुत सुन्दर गीत ..

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  4. इमरान जी, दिल की गहराई से निकली हर बात दिल को न छुए ऐसा कैसे हो सकता है हाँ दिल से महसूसने का हुनर आना चाहिए, वह तो हर समय हमारे साथ है बस उस खुदा से गुफ्तगू करने की फुर्सत होनी चाहिए !
    आकांक्षा जी, आपका स्वागत है, आशा है आपका हमारा साथ लम्बा चलेगा, प्रेम ही तो मेरी सारी कविताओं का आधार है ! परम के प्रति प्रेम!
    संगीता जी आपका आभार !

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