पौष का एक दिन
है प्रातः, पर रात अड़ी है
जाने का यह नाम न लेती,
घना कोहरा, ढका गगन यह
ठिठुरन तन को अकड़ा देती !
आज गगन का राजा भी तो
दुबका बैठा कहीं छुपा है,
बादल डाले डेरा नभ में
ठंड में डबल वार किया है !!
ऊपर से यह शीत लहर भी
जाने हवा कहाँ से आती,
निकट कहीं पर बर्फ गिरी है
उसके दे संदेशे जाती !
आग, धूप अब मित्र बनी हैं
गुड, रेवड़ियाँ बड़ी सोहतीं,
ठंडी शामें सिहरा जातीं
बस लिहाफ की बाट जोहतीं !
लिये कांगडी अगन तापते
कोई लाकड़ ढेर जलाते,
ढेरों कपड़े लादे तन पे
पूस की ठंड दूर भगाते !
अनिता निहालानी
६ दिसंबर २०१०
बहुत खूब ...सुन्दर शब्दों से भावमय करती प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर शब्द चित्र...आभार
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
जवाब देंहटाएंविचार-प्रायश्चित
वाह अनीता जी....सर्दियों की तमाम बातों को कितनी खूबसूरती से कविता का रूप दिया है आपने|
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