शनिवार, दिसंबर 18

झलक दिखायेगा तब राम

झलक दिखायेगा तब राम

मात्र मौन है जिसकी भाषा
शब्दों से क्या उसको काम,
फुसफुसाहट सुन ले उसकी
पा जायेगा मन विश्राम !

इक जड़ प्रकृति दूजा चेतन
मेल कहाँ हो सकता है,
तीजे हम हैं बने साक्षी
कौन हमें फिर ठगता है ?

शब्दों के जंगल उग आते
मन, बुद्धि जिसमें खो जाते,
भूल ही जाते निज होने को
माया का एक महल बनाते !

सूर्य चेतना, मन चन्द्रमा
निज प्रकाश न मन के पास,
जिसके बिना न सत्ता उसकी
मन उस पर न करे विश्वास !

तन स्थिर हो, ठहरा हो मन
अहं पा रहा जब विश्राम,
बुद्धि विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तब राम !

वही झलक पा मीरा नाची
चैतन्य को वही लुभाए,
वही हमारा असली घर है
कबिरा उसी की बात सुनाये !

अनिता निहालानी
१८ दिसंबर २०१०

8 टिप्‍पणियां:

  1. तन स्थिर हो, ठहरा हो मन
    अहं पा रहा जब विश्राम,
    बुद्धि विस्मित थमी ठगी सी
    झलक दिखायेगा तब राम !

    बहुत ही मन को सुकून मिलता है आपकी कवितायें पढ़ कर..गहन चिंतन से ओतप्रोत बहुत सुन्दर प्रस्तुति. आभार

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  2. आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत लय, छंद, प्रवाह लिए एक प्रांजल रचना। मानव बाह्य जगत से जितना जुड़ा है; उतना ही वह अन्तर्जगत् में भी जी रहा है। बाहरी संसार से जुड़े हैं ; तो गतिशील होकर भी वह स्थिर,गतिशील मूर्त्त-अमूर्त्त सभी से जुड़ा है। और फिर स्वयं की खोज ही तो उसे उस तक पहुंचाती है।

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  3. कैलाश जी , संगीता जी व मनोज जी आप सभी का आभार ! सही कहा है एक दुनिया बाहर है और एक हमारे भीतर जब दोनों के बीच सामंजस्य हो तो जीवन की धारा सहज गति से बहने लगती है !

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  4. आध्यात्मिक रंग लिए सुन्दर रचना! शुभकामना!

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