झलक दिखायेगा तब राम
मात्र मौन है जिसकी भाषा
शब्दों से क्या उसको काम,
फुसफुसाहट सुन ले उसकी
पा जायेगा मन विश्राम !
इक जड़ प्रकृति दूजा चेतन
मेल कहाँ हो सकता है,
तीजे हम हैं बने साक्षी
कौन हमें फिर ठगता है ?
शब्दों के जंगल उग आते
मन, बुद्धि जिसमें खो जाते,
भूल ही जाते निज होने को
माया का एक महल बनाते !
सूर्य चेतना, मन चन्द्रमा
निज प्रकाश न मन के पास,
जिसके बिना न सत्ता उसकी
मन उस पर न करे विश्वास !
तन स्थिर हो, ठहरा हो मन
अहं पा रहा जब विश्राम,
बुद्धि विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तब राम !
वही झलक पा मीरा नाची
चैतन्य को वही लुभाए,
वही हमारा असली घर है
कबिरा उसी की बात सुनाये !
अनिता निहालानी
१८ दिसंबर २०१०
तन स्थिर हो, ठहरा हो मन
जवाब देंहटाएंअहं पा रहा जब विश्राम,
बुद्धि विस्मित थमी ठगी सी
झलक दिखायेगा तब राम !
बहुत ही मन को सुकून मिलता है आपकी कवितायें पढ़ कर..गहन चिंतन से ओतप्रोत बहुत सुन्दर प्रस्तुति. आभार
बहुत गहन अभिव्यक्ति ...
जवाब देंहटाएंआध्यात्मिकता से ओत-प्रोत लय, छंद, प्रवाह लिए एक प्रांजल रचना। मानव बाह्य जगत से जितना जुड़ा है; उतना ही वह अन्तर्जगत् में भी जी रहा है। बाहरी संसार से जुड़े हैं ; तो गतिशील होकर भी वह स्थिर,गतिशील मूर्त्त-अमूर्त्त सभी से जुड़ा है। और फिर स्वयं की खोज ही तो उसे उस तक पहुंचाती है।
जवाब देंहटाएंकैलाश जी , संगीता जी व मनोज जी आप सभी का आभार ! सही कहा है एक दुनिया बाहर है और एक हमारे भीतर जब दोनों के बीच सामंजस्य हो तो जीवन की धारा सहज गति से बहने लगती है !
जवाब देंहटाएंbhut hi manohari bhakti ras me dubi kavita.....
जवाब देंहटाएंआध्यात्मिक रंग लिए सुन्दर रचना! शुभकामना!
जवाब देंहटाएंbhakti bhav se bhari sundar kavita..
जवाब देंहटाएंmere blog par bhi kabhi aaiye..
Lyrics Mantra
आध्यात्मिक स्वर...
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना!