रविवार, फ़रवरी 13

कभी ऐसा भी तो करें

कभी  करें  कुछ ऐसा भी तो

फूलों से बतियाएं थोड़ा
हरी घास का बने बिछौना,
बांसों के झुरमुट में जाकर
ढूंढें कोई शीतल कोना !

कभी शहर से दूर गाँव में
पंचभूत से आँख मिलाएँ,
एक गगन हमारे भीतर
उससे भी पहचान बनाएँ !

देह धरा में गंध अनेकों
रक्त दौड़ता जल ही तो है,
पवन श्वास बन पलपल सँग है
प्रेम तपन अनल ही तो है !

इस तन को उतना ही दें हम
भार बने न यह जीवन पर,
मन को उतनी ही आजादी
उलझाये न कभी उलझ कर !

मुक्त गगन में उड़ सकते फिर
बंद गुफा में क्यों रहते हम,
बंधन मुक्त सदा रह सकते
पिंजरों में क्यों फंसते हम !

अनिता निहालानी
१३ फरवरी २०११   


7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर और प्रभावशाली, आपके लेखन का एक बेहतरीन नमूना!
    मैं अक्सर ऐसा करता हूँ
    फूलों संग बतियाता हूँ
    भंवरों संग गुनगुनाता हूँ
    तितली सा इठलाता हूँ!

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  2. बहुत सुन्दर बात कही..काश!! ऐसा कर पायें..

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  3. इस तन को उतना ही दें हम
    भार बने न यह जीवन पर,
    मन को उतनी ही आजादी
    उलझाये न कभी उलझ कर !

    बहुत विचारणीय रचना...मन को किसी और ही लोक में ले गयी ..आभार

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  4. एक गगन हमारे भीतर
    उससे भी पहचान बनाएँ !
    बहुत अच्छी रचना ! शुभकामनाएँ

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  5. फूलों से बतियाएं थोड़ा
    हरी घास का बने बिछौना,
    बांसों के झुरमुट में जाकर
    ढूंढें कोई शीतल कोना
    bahut achcha likhi hain.

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  6. हृदयग्राही, हृदय को स्पंदित करने वाली रचना .............शुभकामनाएं

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