मंगलवार, फ़रवरी 22

स्वयं को ही जग माना हमने


स्वयं को ही जग माना हमने


स्वयं की सत्ता मान ली हमने
स्वयं को इतना मान दिया,
स्वयं की प्रभुता के आगे
न ईश को भी स्थान दिया !

झट कुम्हलाये, झट झुंझलाए
लघु ठेस भी सह न पाए,
पीड़ित अहं ने पीड़ा बांटी
कल्पित दुःख भी हमें सताए !

स्वयं के आगे नजर न जाती
स्वयं से शुरू स्वयं पर आती,
स्वयं को ही जग माना हमने
अल्प ज्ञान पर हम इतराए !

प्रेम किया तो नापतोल कर
कुछ देकर कुछ वापस लेकर
उथले उथले जल में जाकर
झूठे मोती हम ले आये !

अनिता निहलानी
२२ फरवरी २०११

11 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम किया तो नापतोल कर
    कुछ देकर कुछ वापस लेकर
    उथले उथले जल में जाकर
    झूठे मोती हम ले आये !

    बहुत सार्थक प्रस्तुति..हम अपने अहम् में सत्य को ठुकरा देते हैं.बहुत सुन्दर .

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  2. स्वयं से बाहर भी दुनिया है देखने के लिए निगाह और प्रशंसा के लिए शब्द होने चाहिए.सुन्दर प्रस्तुति

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  3. सच बात है , मनुष्य आज अपने 'मैं' को ही सब कुछ मानकर जी रहा है | अपने अहम् की तुष्टि के लिए वह सही गलत का निर्णय नहीं कर सकता | अपने द्वारा ही बुने भ्रमजाल को असली जीवन मानकर जी रहा है |

    आपकी रचना गहरा अध्यात्म बोध कराती है |

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  4. झट कुम्हलाये, झट झुंझलाए
    लघु ठेस भी सह न पाए,
    पीड़ित अहं ने पीड़ा बांटी
    कल्पित दुःख भी हमें सताए

    अपने स्वार्थ में ही खोये हुए हैं हम सब ..बहुत अच्छी प्रस्तुति

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  5. उथले उथले जल में जाकर झूठे मोती हम ले आये !
    सच कहा आपने 'मैं' जाता ही नहीं, पूरा जीवन 'मैं' पर ही केन्द्रित कर लिया है हमने ... अच्छी रचना , शुभकामनाएँ !

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  6. यही तो मानव का स्वभाव है, मन की चंचलता, अल्पज्ञता और अहंकार है, दम्भ है ..इसके दमन और सत्य बोध के बिना समत्वा और साक्षी भाव का सृजन नहीं हो सकता. एक गूढ़ विषय को इतनी सरलता से अभिव्यक्त किया इसके लिए ढेर सारा बधाई ...आभार

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  7. अहं की बहुत सटीक व्याख्या.

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  8. बहुत सार्थक प्रस्तुति .आभार.....

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