कर्म से कर्मयोग
चींटी से हाथी तक
राजा से रंक तक,
मूर्ख से विद्वान तक
सभी रत हैं कर्म में !
श्वास लेते, उठते, बैठते
रोते-हँसते, चलते-फिरते,
उंघते, सोते हुए भी
हम कर्म से विमुक्त नहीं !
कुछ पाने की आस लगाते
इधर-उधर दौड़-भाग करते,
सुख, धन, सम्मान हेतु
जीवन भर खटते हैं !
चाह अंतर में धरे
पूरा होता है जीवन,
तब भी पीछा नहीं छोड़ते
कर्म पुनः संसार में जोतते !
जो बीज बोये थे
उन्हें काटना है,
नए कर्मों की पौध
को छांटना है !
क्लांत मन, थका तन
एक दिन सजग होता है,
ज्ञानदीपक भक से
भीतर जल उठता है !
कर्म तब बांधते नहीं
निष्काम, निस्वार्थ कर्म,
केवल कर्म के लिये कर्म
कर्म तब कर्मयोग कहलाता है !
अनिता निहालानी
१ फरवरी २०११
कर्मयोग की बहुत सुन्दर व्याख्या करती है आपकी सरल-सहज रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत हितकर पोस्ट
क्लांत मन, थका तन एक दिन सजग होता है, ज्ञानदीपक भक से भीतर जल उठता है !
जवाब देंहटाएंकर्म तब बांधते नहीं निष्काम, निस्वार्थ कर्म,केवल कर्म के लिये कर्म कर्म तब कर्मयोग कहलाता है !
सत्य वचन कहती हुई सार्थक रचना
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति......जीवन सार से भरी आपकी ये पोस्ट शानदार है ....ये पंक्तियाँ सबसे अच्छी लगी-
कुछ पाने की आस लगाते
इधर-उधर दौड़-भाग करते,
सुख, धन, सम्मान हेतु
जीवन भर खटते हैं !
इस कविता ने समझा दिया कि एक से कर्म करते हुए भी कर्मयोगी के कर्म और हमारे कर्म में कितना फर्क है.
जवाब देंहटाएंआप ने लिखा.....
जवाब देंहटाएंहमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 21/05/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
बहुत बहुत आभार कुलदीप जी!
हटाएंभक्क से ज्ञानदीप जल उठने की बात से जैसे धुंध छंट गई दुविधा की !
जवाब देंहटाएंअभिनन्दन अनीता जी .
स्वागत व आभार नूपुर जी!
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