ऐसा भी होता जीवन में
छा जाता भीतर सन्नाटा
कोई शब्द न लेता श्वास,
कविता जैसा कुछ उभरेगा
नहीं जगाता कोई आस !
जैसे बंद गली हो आगे
भान हुआ तो होती खीझ,
वैसे इस मन का सूनापन
कैसे इस पर जाएँ रीझ !
जहां खिले थे कमल हजारों
आज वहाँ मटियाला सा जल,
जहां रचे थे गीत हजारों
आज वहाँ न कोई हलचल !
ऐसा भी होता जीवन में
धारा समय की रुख मोड़ती,
आज जहाँ रेतीले मंजर
कभी वहीं थी नदी गुजरती !
दूर खड़ा होकर जो देखे
इस प्रपंच से न उलझे,
वरना गुंथे हुए हैं रस्ते
कैसे इसके बल सुलझें !
आज कल शायद इसी दौर से गुज़र रही हूँ ..... सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता. इसे समय की इच्छा कहें या आदेश, जो है उसी का खेल है.
जवाब देंहटाएंनिहार जी, सही कहा है आपने, यह समय का आदेश ही है...आभार!
हटाएंज़िन्दगी की हकीकत बयाँ कर दी …………एक उत्कृष्ट रचना जिस तरफ़ चाहे मोड दे दो ।
जवाब देंहटाएंऐसा भी होता जीवन में...
जवाब देंहटाएंऐसा ही होता है जीवन........
बहुत बढ़िया!!!
सादर
अनु
अनु जी, यदि केवल ऐसा ही हो जीवन तो कितना वीराना होगा..ऐसा भी है कहना ठीक होगा...आभार !
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति!!
जवाब देंहटाएंरंजना जी, शुक्रिया...
हटाएं@ कविता जैसा कुछ उभरेगा
जवाब देंहटाएंनहीं जगाता कोई आस !
किससे उम्मीदें और क्यों ...??
यह तो अन्दर है केवल सहलाना भर है ..बस !!
मंगलकामनाएँ आपको !
सतीश जी, सही कहा है आपने, सब भीतर है..कभी ढक जाता है कभी उभर जाता है..
हटाएं.प्रखर अनुभूतियों का दस्तावेज़ है यह रचना .
जवाब देंहटाएंजीवन इसी का नाम है..बहुत सुन्दर .
जवाब देंहटाएंमाहेश्वरी जी, स्वागत व आभार!
हटाएंकभी-कभी ऐसा होता है -परिवर्तन के क्रम में .पर उसमें भी आपके लिये कुछ जरूर होगा जो तटस्थ और विरक्त न होने दे,मन हमेशा एक सा नहीं रहता .इतनी शीघ्रता में निष्कर्ष मत निकालिये .अभी आगे बहुत है-बस थोड़ा समय!
जवाब देंहटाएंप्रतिभाजी, वाकई, अधीर मन की निशानी है यह शिकायत..आपने मर्ज को कितनी आसानी से पहचान लिया..आभार!
हटाएंभावपूर्ण!!
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंहाँ!ऐसा भी होता जीवन में..
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