मंगलवार, मई 7

ऐसा भी होता जीवन में


ऐसा भी होता जीवन में



छा जाता भीतर सन्नाटा
कोई शब्द न लेता श्वास,
कविता जैसा कुछ उभरेगा
नहीं जगाता कोई आस !

जैसे बंद गली हो आगे
भान हुआ तो होती खीझ,
वैसे इस मन का सूनापन
कैसे इस पर जाएँ रीझ !

जहां खिले थे कमल हजारों
आज वहाँ मटियाला सा जल,
जहां रचे थे गीत हजारों
आज वहाँ न कोई हलचल !

ऐसा भी होता जीवन में
धारा समय की रुख मोड़ती,
आज जहाँ रेतीले मंजर
कभी वहीं थी नदी गुजरती !

दूर खड़ा होकर जो देखे
इस प्रपंच से न उलझे,
वरना गुंथे हुए हैं रस्ते
कैसे इसके बल सुलझें !

18 टिप्‍पणियां:

  1. आज कल शायद इसी दौर से गुज़र रही हूँ ..... सुंदर रचना ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर कविता. इसे समय की इच्छा कहें या आदेश, जो है उसी का खेल है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. निहार जी, सही कहा है आपने, यह समय का आदेश ही है...आभार!

      हटाएं
  3. ज़िन्दगी की हकीकत बयाँ कर दी …………एक उत्कृष्ट रचना जिस तरफ़ चाहे मोड दे दो ।

    जवाब देंहटाएं
  4. ऐसा भी होता जीवन में...
    ऐसा ही होता है जीवन........

    बहुत बढ़िया!!!

    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. अनु जी, यदि केवल ऐसा ही हो जीवन तो कितना वीराना होगा..ऐसा भी है कहना ठीक होगा...आभार !

      हटाएं
  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति!!

    जवाब देंहटाएं
  6. @ कविता जैसा कुछ उभरेगा
    नहीं जगाता कोई आस !

    किससे उम्मीदें और क्यों ...??
    यह तो अन्दर है केवल सहलाना भर है ..बस !!
    मंगलकामनाएँ आपको !

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सतीश जी, सही कहा है आपने, सब भीतर है..कभी ढक जाता है कभी उभर जाता है..

      हटाएं
  7. .प्रखर अनुभूतियों का दस्तावेज़ है यह रचना .

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवन इसी का नाम है..बहुत सुन्दर .

    जवाब देंहटाएं
  9. कभी-कभी ऐसा होता है -परिवर्तन के क्रम में .पर उसमें भी आपके लिये कुछ जरूर होगा जो तटस्थ और विरक्त न होने दे,मन हमेशा एक सा नहीं रहता .इतनी शीघ्रता में निष्कर्ष मत निकालिये .अभी आगे बहुत है-बस थोड़ा समय!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रतिभाजी, वाकई, अधीर मन की निशानी है यह शिकायत..आपने मर्ज को कितनी आसानी से पहचान लिया..आभार!

      हटाएं
  10. हाँ!ऐसा भी होता जीवन में..

    जवाब देंहटाएं