शनिवार, नवंबर 15

तृषा जगाये हृदय अधीर

तृषा जगाये हृदय अधीर


वरदानों की झड़ी लगी है
देखो टपके मधुरिम ताप,
अनदेखा कोई लिपटा है
घुल जाता हर इक संताप !

गूँज रहे खग स्वर अम्बर में
मदिर गंध ले बहा समीर,
पुलक जगी तृण-तृण में कैसी
तृषा जगाये हृदय अधीर !

मौन हुआ है मेघ खो गया
नील सपाट हुआ नभ सारा,
तुहिन बरसता दोनों बेला
पोषित हर नव पादप होता !

प्रकृति अपने कोष खोलती
हुई खत्म मेघों की पारी,
गंध लुटाने, पुष्प खिलाने
आयी अब वसुधा की बारी !





5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर.... कुछ व्यस्त था इसलिए बहुत दिन बाद आना हुआ है।

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    1. बहुत नहीं बहुत बहुत दिनों के बाद...स्वागत व आभार !

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  2. अंतस को प्रफुल्लित करती बहुत सुन्दर प्रस्तुति....

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  3. प्रकृति के मनोरम दृष्यों से पूर्ण सरस पंक्तियाँ.

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  4. कैलाश जी, ओंकार जी व प्रतिभा जी, स्वागत व आभार !

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