सोमवार, दिसंबर 26

सबके उर में प्रेम बसा है



सबके उर में प्रेम बसा है 

कौन चाहता है बंधन को
फिर भी जग बंधते देखा है,
मुक्त गगन में उड़ सकता था
पिंजरे में बसते देखा है !

फूलों से जो भर सकता था
काँटों से बिंधते देखा है,
रिश्तों की है धूप सुनहली,
उसमें भी जलते देखा है !

सबके उर में प्रेम बसा है
चाहत में मरते देखा है,
खत्म न हो भर हाथ उलीचे
रिक्त नयन तकते देखा है !


8 टिप्‍पणियां:

  1. कौन चाहता है .. | बहुत अच्छी रचना है आपकी |

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  2. प्रेम और चाहत साथ रहती है ... भाव पूर्ण लेखन ...

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  3. बहुत बहुत आभर दिगविजय जी !

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-12-2016) को "छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह" (चर्चामंच 2570) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !

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  6. जीवन के विरोधभास को अलंकृत करती काव्य-पंक्तियाँ संवेदना का सुर लिये हुए हैं.

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