कौन चाहता है बंधन को
फिर भी जग बंधते देखा है,
मुक्त गगन में उड़ सकता था
पिंजरे में बसते देखा है !
फूलों से जो भर सकता था
काँटों से बिंधते देखा है,
रिश्तों की है धूप सुनहली,
उसमें भी जलते देखा है !
सबके उर में प्रेम बसा है
चाहत में मरते देखा है,
खत्म न हो भर हाथ उलीचे
रिक्त नयन तकते देखा है !
कौन चाहता है .. | बहुत अच्छी रचना है आपकी |
जवाब देंहटाएंस्वागत व बहुत बहुत आभार !
हटाएंप्रेम और चाहत साथ रहती है ... भाव पूर्ण लेखन ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व बहुत बहुत आभार !
हटाएंबहुत बहुत आभर दिगविजय जी !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (28-12-2016) को "छोटी सोच वालों का एक बड़ा गिरोह" (चर्चामंच 2570) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंजीवन के विरोधभास को अलंकृत करती काव्य-पंक्तियाँ संवेदना का सुर लिये हुए हैं.
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