मुट्ठी खोली दुःख ही था,
स्वप्न स्वर्ग के रहे पालते
कदमों तले नर्क ही था !
जीवन जैसे एक पहेली
उलझ गया कोई हो जाल,
हल न जिसका मिला किसी को
ऐसा मुश्किल एक सवाल !
नजरें जब तक लगीं गगन पर
घर का दीप अदेखा रहता,
सपनों के पीछे जो भागा
मन पँछी वह कैद हुआ !
कर्म सफल हो चाहा इतना
किंतु सफलता रही अधूरी,
आशा का बिरवा बोया था
किसकी आस हुई है पूरी !
नजरें जब तक लगीं गगन पर
घर का दीप अदेखा रहता,
सपनों के पीछे जो भागा
मन पँछी वह कैद हुआ !
कर्म सफल हो चाहा इतना
किंतु सफलता रही अधूरी,
आशा का बिरवा बोया था
किसकी आस हुई है पूरी !
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