स्वप्नों सी वे झर जाती हैं
नहीं मिटाता जीवन से गम,
स्वप्नों सी वे झर जाती हैं
या जैसे फूलों से शबनम !
एक दौड़ में शामिल है जो
श्रम ही जिसने जाना जीवन,
क्लान्त कभी तो डरता होगा
थक कर सो जाता जो मन !
बाहर शिखरों पर पहुँचा है
नहीं ठिकाना भीतर पाया,
बंधा रहा सीमाओं में ही
आजादी का जश्न मनाया !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंयह भी एक विडंबना है.
जवाब देंहटाएंयही तो आज के जीवन की विडम्बना है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-12-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2564 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
वाह क्या बात ... सीमाओं में रह कर आज़ादी का जश्न ... मिथ्या ही है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब ...
जवाब देंहटाएंआप सभी सुधीजनों का हृदय से आभार !
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