दृष्टि धूमिल मोहित है मन
किसी-किसी दिन झूठ बोलता लगता दर्पण
नयन दिखाते वही देखना चाहे जो भी मन !
दृष्टि धूमिल मोहित है मन
धुंधला-धुंधला सा संसार,
प्रिय को महिमामंडित करता
छलक रहा जब अंतर प्यार !
सत्य छिपा ही रहता इक तरफ़ा जब अर्पण
श्रवण सुनाते वही सुनना चाहे जो भी मन !
पक्षविहीन खड़ा हो जग में
शक्तिहीन के लिए असम्भव,
झुक जाता है निज पक्ष में
झेल आत्मा का पराभव !
थोड़े में सन्तुष्ट हुआ जो काट सके न बंधन
बुद्धि सुझाती वही जानना चाहे जो भी मन !
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