शुक्रवार, फ़रवरी 25

हम आनंद लोक के वासी

हम आनंद लोक के वासी 
मन ही सीमा है मानव की
मन के आगे विस्तीर्ण  गगन, 
ले जाये यदि यह खाई में 
इससे ऊपर है मुक्त पवन !  

जो कंटक भीतर चुभता है
जिसका हमें अभाव खल रहा, 
कोई पीड़ा हमें सताए 
कुछ यदि माँगे नहीं मिल रहा ! 

सब इसकी है कारगुजारी 
मन है एक सधा व्यापारी, 
इसके दांवपेंच जो समझे 
पार हो गया वही खिलाड़ी ! 

हम आनंद लोक के वासी 
यह हमको नीचे ले आता, 
कभी दिखाता दिवास्वप्न यह 
अपनी बातों में उलझाता !  

सुख की आस सदा बंधाता 
सुख आगे ही बढ़ता जाता, 
थिर पल भर रहना ना जाने  
कैसे उससे नर कुछ पाता ! 

घूम रहा हो चक्र सदा जो 
कैसे बन सकता है आश्रय, 
शाश्वत अचल एक सा प्रतिपल 
है स्रोत आनंद का सुखमय ! 

हम हैं एक ऊर्जा अविरत
स्वयं समर्थ, आप्तकामी हम, 
मन छोटा सा ख्वाब दिखाए
डूब-डूब जाते उसमें हम ! 

भुला स्वयं को पीड़ित होते 
खुद की महिमा नहीं जानते, 
सदा से हैं सदा रहेंगे 
भूल यही हम रहे भागते ! 

मुक्ति तभी संभव है अपनी 
मन के पार हुआ जब जाये 
इससे जग को देखें चाहे, 
यह ना जग हममें भर पाए ! 

9 टिप्‍पणियां:

  1. सब इसकी है कारगुजारी
    मन है एक सधा व्यापारी,
    इसके दांवपेंच जो समझे
    पार हो गया वही खिलाड़ी ! आत्मचिंतन !
    बहुत सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।

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  2. शाश्वत आनन्द दर्शन। नींद से जगाया गया हो जैसे सुन्दर थपकी देकर।

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    1. वाह ! कितने सुंदर शब्दों में सार्थक टिप्पणी !

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  3. वाह बहुत सुन्दर रचना , हम हैं एक ऊर्जा अविरत
    स्वयं समर्थ, आप्तकामी हम, बहुत खूब , जीवन दर्शन समझाती अच्छी रचना

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  4. सब इसकी है कारगुजारी
    मन है एक सधा व्यापारी,
    इसके दांवपेंच जो समझे
    पार हो गया वही खिलाड़ी... वाह!👌

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