शुक्रवार, जून 3

गीत समर्पण का

 गीत समर्पण का 

हमारी चाहतों में नहीं था प्यार 

कभी लाघें नहीं मंदिरों के द्वार 

दूर से ही देखते रहे 

लोगों का आना-जाना 

अभी तो हमें था अपनी प्रतिमा को सजाना 

जो भी किया खुद के लिए 

औरों का ख़्याल ही नहीं आता था 

अहंकार का पत्थर सम्मुख खड़ा 

हो जाता था 

अपनी सुविधा देखकर की थी किसी की भलाई 

थोड़ा सा दान देते हुए बड़ी सी तस्वीर भी खिंचवाई 

हमारी ख़ुशी हमारी अपनी बढ़ोतरी में नज़र आती 

यह जगत हमारे लिए ही बना है 

जाने कौन सी माया यह बता जाती थी 

पर कहाँ मिली ख़ुशी, क्योंकि

उसमें प्यार की खुशबू नहीं थी

ख़ुशी प्रकाश की तरह सीधी नहीं मिलती 

परावर्तित होकर अपने भीतर खिलती है 

यह राज किसी के सामने खुलता है 

तो वह पहली बार अस्तित्त्व के सामने झुकता है 

उस समर्पण में ही भीतर कोई द्वार खुलता है 

हवा का एक झोंका सा आकर 

सहला जाता है 

तब देने की ललक जगती है ! 


12 टिप्‍पणियां:

  1. अपनी सुविधा देखकर की थी किसी की भलाई

    थोड़ा सा दान देते हुए बड़ी सी तस्वीर भी खिंचवाई ।

    बढ़िया कटाक्ष । अंतिम पंक्तियों में सच्चा समर्पण भाव । सुंदर रचना ।

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  2. जीवन का फलसफ़ा दर्शाती सुंदर अभिव्यक्ति|

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(४-०६-२०२२ ) को
    'आइस पाइस'(चर्चा अंक- ४४५१)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  4. बहुत सही और सुंदर भावों को लिखा है आपने दीदी ।

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