उस सन्नाटे के पीछे तब
उस सन्नाटे के पीछे तब
जहाँ शब्द साथ न देते हों
जब सूना-सूना अंबर हो,
घन का कतरा भी नहीं एक
जो ढक लेता है सूरज को !
उस ख़ालीपन को जो भर दें
भावों का भी अभाव लगता,
उस सन्नाटे के पीछे तब
जाकर उस अनाम से मिलना !
पीता कोई भर-भर प्याला
जीवन की मदिरा है बँटती,
खड़ा उजाला चंद कदम पर
हो रात अँधेरी कितनी भी !
रात और अँधेरा है कहीं ? अखबार टीवी रेडियो तो नहीं बताते हैं | उजाला ही उजाला है हर तरफ है |
जवाब देंहटाएंसत्य को बताया नहीं जाता, वह तो जग ज़ाहिर है, भारत की भोली-भाली जनता को सही-ग़लत का विवेक सीखने में शायद और वक्त लगेगा
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंसचमुच ,रात अंधेरी कितनी देर?
जवाब देंहटाएंकिरणें छू लें भोर की उतनी देर...।
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बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
सस्नेह।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १७ मई २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी !
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंउजालेपन की आशा का होना बहुत ज़रूरी है ... इसी आशा में जीवन किआशा है ...
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, स्वागत व आभार !
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