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शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


बुधवार, मार्च 6

अपना-अपना स्वप्न देखते

अपना-अपना स्वप्न देखते 


एक चक्र सम सारा जीवन 

जन्म-मरण पर जो अवलंबित,

एक ऊर्जा अवनरत  स्पंदित 

अविचल, निर्मल सदा अखंडित ! 


एक बिंदु से शुरू हुआ था 

वहीं लौट कर फिर जाता है, 

किन्तु पुनः पाकर नव जीवन

नए कलेवर में आता है ! 


पंछी, मौसम, जीव सभी तो 

इसी चक्र से बँधे हुए हैं , 

अपना-अपना स्वप्न देखते 

नयन सभी के मुँदे  हुए हैं !


हुई शाम तो लगीं अजानें  

घंटनाद कहीं जलता धूप  ,

कहीं आरती, वन्दन, अर्चन 

कहीं सजा महा सुंदर रूप !


एक दिवस अब खो जायेगा 

समा काल के भीषण मुख में, 

कभी लौट कर न आयेगा 

बीता चाहे सुख में दुःख में ! 


एक रात्रि होगी अन्तिम भी 

तन का दीपक बुझा जा रहा, 

यही गगन तब भी तो होगा 

पल-पल करते समय जा रहा !


गुरुवार, अगस्त 20

मोह और प्रेम

 मोह और प्रेम 

 

जहाँ छूट ही जाने वाला है 

सब कुछ एक दिन 

वहाँ कर सकता है मोह 

कोई मदहोश होकर ही

जहां काल चारों ओर

अपने विकराल पंजे फैलाये खड़ा है 

वहाँ संग्रह किसका करें 

जो मृत्यु के बाद भी नहीं मरता 

उसे क्या चाहिए ?

जो छूट ही जायेगा 

उसे कौन सहेजे 

पैरों में क्यों बांधें जंजीरें 

हजार वस्तुओं के संग्रह से 

पंछी को उड़ ही जाना है 

तो क्यों लगन लगायेगा 

पिंजरे से 

चाहे सुवर्ण का ही हो 

पिंजरा तो पिंजरा है 

सुख जोड़ने में नहीं छोड़ने में है 

मुक्त हृदय से हर बन्धन तोड़ने में है 

प्रेम तो स्वभाव है स्वयं का 

वह हर आग में जलने से बच ही जायेगा

जिसे साथ जाना है 

वह किसी भांति  मिटाया न जायेगा  !


बुधवार, जुलाई 15

जरा पार की हद आंगन की

जरा पार की हद आंगन की 


काल समेटे दुनिया अपनी 
उससे पहले ही जगना है,
ताग बटोरे बांध एक में 
जान ही लें जगत सपना है ! 

जब तक बचा रहा पंजे से 
तब तक मूषक रहा कुतरता, 
पड़ जाता ज्यों उसके फंदे 
मार्जार बन काल झपटता !

ऐसा ही कुछ कोरोना है 
दबे पाँव राहें तकता है,
जरा पार की हद आंगन की 
नहीं रहम पल भर करता है !

धनवानों का धन रह जाता 
रुतबा, पद कुछ काम न आता, 
चपरासी से राष्ट्रपति यहा
एक तराजू तौला जाता ! 

सोमवार, मई 18

आदि - अंत

आदि - अंत 

आदि में 'एक' ही था 
'एक' के सिवा दूसरा नहीं था 
फिर विभक्त किया उसने स्वयं को 'दो' में 
एक वामा कहलायी, बांये अंग में बैठने वाली 
दूसरा अथक श्रम से सृष्टि का संधान करने वाला 
दोनों में कोई छोटा-बड़ा न था 
एक प्रेम की मधुर रस धार थी 
एक घर बनाकर प्रतीक्षा करती 
दूसरा दुनिया जहान से पदार्थ लाता 
वह सेविका बनकर भी मालकिन थी 
वह स्वामी बनकर भी याचक था 
तब जीवन सहज था क्योंकि 
विरोधी पक्ष एक दूसरे में समाहित थे 
काल की धारा में सब बदलने लगा 
एक विस्तार पाता गया जितना 
घर से दूर होता गया 
प्रेम को बंधन मानकर तिरस्कार किया 
दूसरी भी अपमान से कुंठित हुई 
नए-नए रूप धर  लुभाने लगी 
जीवन खंड-खंड हो गया 
प्रेम ही है घर का आधार 
यदि न बचे तो बिखर जाता है संसार !

शनिवार, अप्रैल 18

देव और मानव


देव और  मानव 


कोटि-कोटि ब्रह्मांडों के सृजन का 
जो है साक्षी 
अरबों-खरबों आकाश गंगाओं की रचना का भी 
जिसके सम्मुख प्रतिक्षण
 जन्मते और नष्ट होते हैं लाखों नक्षत्र 
वही जो कहाता है महानायक ! 
शिव ! तांडव नर्तक !

इस अपार आयोजन का
 एक नन्हा सा अंश है वसुंधरा 
 सागरों, वनों, पशु-पंछियों संग 
जिस पर मानव उतरा
सृष्टि चालन में शिव का सहायक 
चाहता तो देव बन सकता था मानव 
किन्तु काल की इस अनंत धारा में 
बहता हुआ हो गया वह दानव !

स्वयं को शक्तिशाली समझ 
अन्य जीवों के प्राणों की कीमत पर 
दुर्बलों पर बल प्रयोग कर 
अंतहीन क्षुधा को 
तृप्त करने हेतु 
धरा का किया निरंकुश दोहन 
हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया 
कर अनवरत युद्धों का आयोजन !

कृषकों से भूमि छीनी 
बच्चों के मुख से दूध 
प्रसाधनों के लिए 
निरीह पशुओं को सताया 
 लोभ की पराकाष्ठा हुई अब 
अपरिमित साधन सिमटते ही जाते  
हजारों आज भूखे ही सो जाते 
अब मौसम भी अपने समय पर नहीं आते 
समय रहते चेत जाये 
इसी में उसका भविष्य समाया है 
सृष्टि का वह रखवाला सचेत करने आया है !


शुक्रवार, अप्रैल 3

देर है वहां अंधेर नहीं

देर है वहां अंधेर नहीं 


देर है वहां अंधेर नहीं 
तभी पुकार सुनी धरती की 
सूक्ष्म रूप में भू पर आके 
व्यवस्था काल लगा है लाने 
कामना और आवश्यकता का अंतर समझाने 
बेघरों को आश्रय दिलवाने 
बच्चों और बुजुर्गों को उनका समय दिलाने 
वरना आज का युवा सुबह से निकला रात को घर आया 
मनोरंजन के साधन खोजे, भोजन भी बाहर से मंगवाया 
परिवार में साथ रहकर भी सब साथ कहाँ थे 
सब कुछ था, पर ‘समय’ नहीं था 
न अपने लिए न अपनों के लिए 
घर चलते थे सेवक-सेविकाओं के सहारे 
भूल ही गए थे घर में भी होते हैं चौबारे 
सुबह की पूजा, दोपहर का ध्यान, शाम की संध्या 
तीनों आज प्रसन्न हैं 
जलता है घर में दीया, योग-प्राणायाम का बढ़ा चलन है 
हल्दी, तुलसी, अदरक का व्यवहार बढ़ा है 
स्वच्छता का मापदंड भी ऊपर चढ़ा है 
शौच, संतोष, स्वाध्याय... अपने आप 
यम-नियम सधने लगे हैं 
भारत की पुण्य भूमि में अपनी संस्कृति की ओर
लौटने के आसार बढ़ने लगे हैं 
‘तप’ ही यहां का मूल आधार है 
ब्रह्मा ने तप कर ही सृष्टि का निर्माण किया 
शिव ने हजारों वर्षों तक ध्यान किया 
कोरोना को भगाने के लिए हमें तपना होगा 
 जीवन के हर क्षण को सद्कर्मों से भरना होगा ! 

गुरुवार, दिसंबर 26

वक्त चुराना होगा

नया वर्ष आने पर हम हर बार संकल्प लेते हैं, नियमित भ्रमण और व्यायाम करेंगे, नियमित योग और ध्यान करेंगे, नियमित अध्ययन और लेखन करेंगे, किन्तु कुछ दिनों बाद जब जीवन अपने पुराने क्रम में आ जाता है तो सबसे पहले यही शब्द निकलते हैं, क्या करें समय ही नहीं मिलता. मुझे लगता है आने वाले वर्ष में यदि हम जीवन में कुछ सकारात्मक बदलाव चाहते हैं तो हमें अपने लिए कुछ वक्त चुराना होगा।


वक्त चुराना होगा !

काल की तरनि बहती जाती 
तकता तट पर कोई प्यासा,
सावन झरता झर-झर नभ से 
मरुथल फिर भी रहे उदासा ! 

झुक कर अंजुलि भर अमृत का भोग लगाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

समय गुजर ना जाए यूँ ही 
अंकुर अभी नहीं फूटा है,
सिंचित कर लें मन माटी को 
अंतर्मन में बीज पड़ा है !

कितने रैन-बसेरे छूटे यहाँ से जाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

कोई हाथ बढ़ाता प्रतिपल 
जाने कहाँ भटकता है मन, 
मदहोशी में डुबा रहा है 
मृग मरीचिका का आकर्षण !

उस अनन्त में उड़ना है तो सांत भुलाना होगा 
वक्त चुराना होगा !

जग की नैया सदा डोलती 
हिचकोले भी कभी लुभाते, 
जिन रस्तों से तोबा की थी 
लौट-लौट कर उन पर आते !

नई राह चुनकर फिर उस पर कदम बढ़ाना होगा 
वक्त चुराना होगा !



शनिवार, सितंबर 29

इन्द्रधनुष सा ही जग सारा



इन्द्रधनुष सा ही जग सारा


एक दिवस, दिन की गुल्लक से
कुछ अद्भुत पल चुरा लिए थे,
ऋतु सुहावनी थी बसंत की
मदमाती सुरभित हवा लिए !

पर्वत के ऊँचे शिखरों पर
हिम के स्वर्णिम फूल खिले थे,
देवदार के तरुओं पर भी
आभामय कुछ छंद लिखे थे !

स्फााटिक मणि सी निर्मल शीतल
जल धारा इक बहती जाती,
फूलों की घाटी थी नीचे
तितली, भ्रमरों को लुभाती !

उन अनमोल क्षणों को दिल की
गहराई में छुपा रखा था,
आज टटोला सिवा ख्याल के
कहीं नहीं थी उनकी छाया !

काल चक्र भरमाता अविरत
चुकती जाती जीवन धारा,
अभी यहीं है, अभी नहीं है
इन्द्रधनुष सा ही जग सारा !