मंगलवार, जुलाई 12

उससे मिलन न क्योंकर होता

उससे मिलन न क्योंकर होता


पोर-पोर में श्वास-श्वास में
नस-नस में हर रक्त के कण में,
गहराई तक भीतर मन में
छाया जो पूरे जीवन में !

उससे ही हम अनजाने हैं
दूरी उससे बढ़ती जाती,
जो खुद से भी निकट है प्रियतम
उससे आँख नहीं मिल पाती !

जिसके होने से ही हम हैं
उससे मिलन न क्योंकर होता,
जिससे कण-कण व्याप रहा है
उससे न मन प्रीत जोड़ता !

मन अस्थिर, अस्थिर ही रहता
घबराया सा, रहे कांपता !
बन आकांक्षी यश मान का
या सुविधा के पीछे जाता !

बचा बचा कर रखता तन को
बचा बचा कर रखता धन को,
दोनों ही कुछ दिन के साथी
समझ न आता भोले मन को !




रविवार, जुलाई 10

उन सब बच्चों को समर्पित, जिनका आज जन्म दिन है और जो घर से दूर हैं !

प्रिय पुत्र के जन्मदिवस पर


तुम आये जीवन में जिस पल
जगमग मन में हुआ उजाला,
अपने ही तन की माटी से
गढ़ डाला जब रूप निराला !

उस नन्हें तन के भीतर से  
तुम झांक रहे जैसे गोपाला,
सुंदर मुखड़े से नित अपने
सबको मोहित कर डाला !

बालक हुए किशोर बने तुम
बड़े प्रेम से हमने पाला,
युवा हुए हो, दूर गए अब
घर को सूना कर डाला !

है जोश और धैर्य अनोखा
और भ्रमण का शौक बड़ा,
हो एकांत प्रिय, तुम मौनी
अंतर है मजबूत गढ़ा !

जीवन में कुछ पाना तुमको
तुच्छ नहीं वह श्रेष्ठ धर्म हो,
सुख आनंद से खिले रहो तुम
सदा सुघड़ तुमसे हर कर्म हो !
   


शनिवार, जुलाई 9

खोया खोया सा मन रहता

खोया खोया सा मन रहता

जब कोई हौले से आकर
कानों में वंशी धुन छेड़े,
माली दे ज्यों जल पादप को 
जब कोई अंतर को सींचे !

जब तारीफों के पुल बांधें  
नजरों में जिनकी न आये,
जब सफलता घर की चेरी
पांव जमीं पर न पड़ पाएँ !

जब सब कुछ बस में लगता हो
गाड़ी ज्यों पटरी पर आयी,
रब से कोई नहीं शिकायत
दिल में राहत बसने आयी !

फिर भी भीतर कसक बनी सी
अहम् को चोट लगा करती है,
खोया-खोया सा मन रहता
स्मित अधरों पे कहाँ टिकती है !

पीड़ा तन की या फिर मन की
उलझन ही कोई प्रियजन की,
रातों को न नींद आ रही
रौनक चली गयी आंगन की !

 मन सुख की लालसा करता
जग से लेन-देन चलता है,
लेकिन भेद न जाने कोई
असली खेल कहाँ चलता है !
    



बुधवार, जुलाई 6

साक्षीभाव


साक्षीभाव


संवेदनाओं का ही तो खेल है
चल रहा है छल इन्हीं का...
संवेदनाएं, जो घटतीं हैं मन की भूमि पर
और प्रकटती हैं देह धरातल पर
 जहाँ से पुनः
ग्रहण की जाती हैं मन द्वारा
 और फिर प्रकटें देह.....

मान पा जब उमगाया मन
झेल अवमान कुम्हलाया...
उपजती है संवेदना की मीठी व कड़वी फसल
देह के खेत पर
पड़ जाती है एक नई झुर्री हर नकार के बाद
और खिल जाता है कहीं गुलाब हर स्वीकार के बाद
लेकिन गुलाब की मांग बढ़ती है, और यही है वह कांटा
जो मिलने ही वाला है गुलाब के साथ...
हर झुर्री भी जगाती है वितृष्णा
यानि एक नई झुर्री की तैयारी !

खिलाड़ी वही है जो समझ गया इस खेल को
आते-जाते मौसमों का साक्षी
वह टिका है भीतर
खेल से परे सदा आनंद में !




सोमवार, जुलाई 4

ऊपर का बंधन तो भ्रम है


आजादी ! आजादी ! आजादी !
मांग है सबकी आजादी,
कीमत देनी पड़ती सबको
फिर भी चाहें आजादी !

नन्हा बालक कसमसाता
हो मुक्त बाँहों से जाने,
किशोर एक विद्रोह कर रहा
माता-पिता के हर नियम से !

नहीं किसी का रोब सहेंगे
तोड़-फोड़ कर यही दिखाते,
हड़तालों से और नारों से
अपनी जो आवाज सुनाते !

इस आजादी में खतरे हैं
बंधन की अपनी मर्यादा,
एक और आजादी भी है
जब बंधन में भी मुक्त सदा !

ऊपर का बंधन तो भ्रम है
मन अदृश्य जाल में कैदी,
उस जाल को न खोला तो
ऊपर की मुक्ति भी झूठी !

छोड़-छाड सब भाग गया जो
सन्यासी जो मुक्त हुआ है,
मन के हाथों बंधा है अब भी
उसको केवल भ्रम हुआ है !

उस असीम की चाह बुलाती
मानव कैद का अनुभव करता,
निमित्त बनता बाहरी बंधन  
असल में उसका मन बांधता !

जिसका रूप अनंत हो व्यापक
कैसे वह फिर कैद रहे,
खुला समुन्दर जैसा है जो
क्योंकर सीमाओं में बहे !

मुक्ति का संदेश दे रहे
खुले व्योम में उड़ते पंछी,
मत बांधो पिंजर में मन को
गा गा गीत सुनाते पंछी !  

जिसके लिये गगन भी कम है
उसे कैद करते हो तन में,
जो उन्मुक्त उड़ान चाहता
कैसे वह सिमटेगा मन में !

पीड़ा यही, यही दुःख साले
सारे बंधन तोड़ना चाहे,
लेकिन होती भूल यहाँ है
असली बंधन न पहचाने !

शुक्रवार, जुलाई 1

मौन मात्र पर अपना हक है


मौन मात्र पर अपना हक है 

एक हवा का झोंका आकर
पश्चिम वाली खिड़की खोले, 
दिखी झलक मनहर फूलों की
हिला गया पर्दा जोरों से !  

पूरब वाले वातायन से
देखो पवन झंकोरा आया,
सँग सुवास मालती की ला
झट कोना-कोना महकाया !

एक लहर भीतर से आयी
कोई आतुर मन अकुलाया,
एक ख्याल कहीं से आया
देखो उसका उर उमगाया !

हवा नशीली कभी लुभाती
तप्त हुई सी कभी जलाती,
लेकिन उस पर जोर है किसका
हुई मस्त वह रहे सताती !

ऐसे ही तो ख्यालात हैं
जिनकी भीड़ चली आती है,
जरा एक को पुचकारो तो
सारी रेवड़ घुस आती है !

पहले जो अहम् लगते थे
अब उन पर हँसी आती है,
ऐसे दलबदलू के हाथों
क्या लगाम फिर दी जाती है !

 मौन मात्र पर अपना हक है 
सदा एकरस, सदा मीत ये,
उसमें रह कर देखें जग को
बढ़ती रहे नवल प्रीत ये !   
  

बुधवार, जून 29

भीतर दोनों हम ही तो हैं


भीतर दोनों हम ही तो हैं

बाहर जितना-जितना बांटा
भीतर उतना टूट गया,
कुछ पकड़ा, कुछ त्यागा जिस पल
भीतर भी कुछ छूट गया !

यह निज है वह नही है अपना
जितना बाहर भेद बढ़ाया,
अपने ही टुकड़े कर डाले
भेद यही तो समझ न आया !

जिस पल हम निर्णायक होते
भला-बुरा दो दुर्ग बनाते,
भीतर भी दरार पड़ जाती
मन को यूँ ही व्यर्थ सताते !

दीवारें चिन डालीं बाहर
खानों में सब फिट कर डाला,
उतने ही हिस्से खुद के कर
पीड़ा से स्वयं को भर डाला !

द्वंद्व बना रहता जिस अंतर
नहीं वह सुख की श्वास ले सके,
कतरा-कतरा जीवन जिसका
कौन उसे विश्वास दे सके !

इक मन कहता पूरब जाओ
दूजा पश्चिम राह दिखाता,
इस दुविधा में फंस बेचारा
व्यर्थ ही मानव मारा जाता !

बाहर पर तो थोड़ा वश है
लाभ पकड़ हानि तज देंगे,
भीतर दोनों हम ही तो हैं
जो हारे, दुःख हमीं सहेंगे !

भीतर दुई का भेद रहे न
तत्क्षण एक उजाला छाये,
एकसूत्रता बाहर भाती
भीतर भी समरसता भाए !


सोमवार, जून 27

फूल


फूल

फूल, बस खिलना जानता है !

उसे शुभ घड़ी, शुभ दिन की चाह नहीं
सम्पूर्ण हो जाने के बाद वह
 खुदबखुद आँखें खोल देता है...

पांखुरी-पांखुरी खिलता हुआ, अर्पित करता है सुगंध
निस्सीम गगन, उन्मुक्त पवन और धरा के नाम
वह कुछ भी बचाकर नहीं रखता
मुस्कान, रंग और गंध देकर
चुपचाप झर जाता है !

मोहलत नहीं मांगता
क्योंकि वह दाता है, भिक्षुक नहीं
फूल में सौंदर्य है, दर्प नहीं
फूल में औदार्य है, लोभ नहीं

फूल सहज है, जीवन और मृत्यु दोनों में सहज
वह सूरज का ताप और शीत की मार दोनों सहता है
उलाहना नहीं देता
सिफारिश नहीं करता कि उसे राज वाटिका चाहिए
जंगल का एकांत नहीं
उसे निहारो या उपेक्षा करो, वह गांठ नहीं बांधता
देवालय या मरघट दोनों पर चढ़ता है
फूल बस खिलना जानता है !


अनिता निहालानी
२७ जून २०११ 

शनिवार, जून 25

हम और वह


हम और वह

हम अहसान जताते उस पर, जिसको अल्प दान दे देते
किन्तु परम का खुला खजाना, बिन पूछे ही सब ले लेते !

दो दाने देकर भी हम तो, कैसे निर्मम ! याद दिलाते
जन्मों से जो खिला रहा है, क्यों कर फिर उसके हो पाते ?

कैसे मोहित हुए डोलते, मैं बस मैं की भाषा बोलें
परम कृपालु उस ईश्वर का, कैसे फिर दरवाजा खोलें !

कटु वाणी के तीर चलाते, नहीं जानते बीज बो रहे
क्रोध की इस विष की खानि से, निज पथ में शांति खो रहे !

वह करुणा का सागर है, नित अकारण ही रहे दयालु
सदा सहारा देता सबको, शांति का सागर, प्रेम कृपालु !

अनिता निहालानी
२६ जून २०११

शुक्रवार, जून 24

श्वासों की समिधा को



श्वासों की समिधा को


श्वासों की समिधा को
अंतर की हवि कर दें,
पल-पल में जी लें फिर
अमृत यूँ हम पी लें !

उर के घट पावन में
प्रियतम जो बसता है,
अर्पण कर मन अपना
उसकी ही छवि भर दें !

अग्नि है शीतल सी
छवि उसकी कोमल सी,
पल-पल का साक्षी वह
स्मृति है श्यामल सी !

श्वासों की माला को
हर पल ही याद रखें,
उसको ही कर अर्पित
मुक्ति का स्वाद चखें !

यूँ ही सा जीवन जो
क्रीड़ा सा बन भाए,
कृत्यों का करना ही
उनका फल बन जाये !

जैसे वह बाँट रहा
दोनों ही हाथों से,
भर झोली बिखराएं 
हम भी कुछ सौगातें !

दाता वह दानी हम
ज्ञाता वह ज्ञानी हम,
उसकी ही थाती को
चरणों पर बलि कर दें !

उसकी ही शक्ति को
जगकर हम पहचानें,
उसकी ही भक्ति को
जीवन का फल मानें !

भीतर जो रहता है
युग-युग का है साथी,
मौनी जब होता मन
झलकाता वह ज्योति !

अनिता निहालानी
२४ जून २०११