बुधवार, जून 1

मन का क्यों द्वार उढ़का है



मन का क्यों द्वार उढ़का है


खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !

बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !

बाहर ही से दस्तक देता
कैसे वह प्रियतम घर आये,
फिर कोई क्यों करे शिकायत
क्यों न बंधन उसे सताए !

जब चाहे वह आ सकता हो
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !

नृत्य उपजता ऐसे मन में
लहर-लहर में तरंगें उठतीं,
कोई जिसको नहीं दूसरा
सारी सृष्टि वहीं उतरती !

मन-मयूर कर ताताथैया
अनजाने से सुख में डोले,
पंखों में भर नेह ऊर्जा
गोपी उर की भाषा बोले !

वेदनायें शर्मा जाएँगी
मन का वह उछाह देख के,
ज्यों अशोक वन में हो सीता
हर्षित राम मुद्रिका लख के !
अनिता निहालानी
१ जून २०११

  

5 टिप्‍पणियां:

  1. बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
    सूरज सरेआम उगता है,
    दीवारें क्यों चिन डाली हैं
    मन का क्यों द्वार उढ़का है !

    पूरी कविता के साथ ही यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.

    सादर

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  2. बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
    सूरज सरेआम उगता है,
    दीवारें क्यों चिन डाली हैं
    मन का क्यों द्वार उढ़का है !

    ....बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..

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  3. खुला-खुला सा आमन्त्रण हो
    जब चाहे वह आ सकता हो,
    उसको पूरी आजादी हो
    कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !

    BAHUT SUNDR BHAV .PRABHUMAY RACHNA .

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  4. अनीता जी,

    बहुत सुन्दर ......उसको निमंत्रण देकर भी हम अपने दरवाज़े बंद कलर लेते हैं जबकि वो हर क्षण हमारे पास ही है......बहुत सुन्दर कविता.....ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई-

    खुला आसमां कैद नहीं है
    बेपर्दा नदिया बहती है,
    खुलेआम करे छेड़ाखानी
    हवा किसी से न डरती है !

    बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
    सूरज सरेआम उगता है,
    दीवारें क्यों चिन डाली हैं
    मन का क्यों द्वार उढ़का है !

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