सोमवार, जून 13

कुदरत न घूंघट खोलती



कुदरत न घूंघट खोलती 

जो घट रहा सब स्वप्न है
क्यों दिल जलाते हो यहाँ,
जो दिख रहा वह है नहीं
क्यों घर सजाते हो यहाँ !

है ओस की एक बूंद जो
मोती बनी, उड़ जायेगी,
मुड़ देख लो जरा रेत पर
मरीचिका खो जायेगी !

यहाँ बज रही नित बांसुरी
निज सुर लगाये हर कोई
क्यों चाह होती है हमें
वह गीत मेरा गाए ही !  

निज बोध न होता यदि  
कुदरत न घूंघट खोलती  
 पा कर परस इक किरण का   
सोयी कमलिनी बोलती !

अनिता निहालानी
१३ जून २०११  

11 टिप्‍पणियां:

  1. घर सिर्फ तभी सज सकता है सही मायने में ,जब हम घर को उसके लिये सजाएं जिसके लिये कमलिनी बोलती है.

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  2. निज बोध न होता यदि
    कुदरत न घूंघट खोलती
    पा कर परस इक किरण का
    सोयी कमलिनी बोलती !

    बहुत खूब कहा है आपने ।

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  3. यहाँ बज रही नित बांसुरी
    निज सुर लगाये हर कोई
    क्यों चाह होती है हमें
    वह गीत मेरा गाए ही !
    वाह! बहुत अच्छे भाव।

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  4. बेहद उम्दा भाव संजोये हैं।

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  5. है ओस की एक बूंद जो
    मोती बनी, उड़ जायेगी,
    मुड़ देख लो जरा रेत पर
    मरीचिका खो जायेगी

    ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.

    सादर

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  6. जो घट रहा सब स्वप्न है
    क्यों दिल जलाते हो यहाँ,
    जो दिख रहा वह है नहीं
    क्यों घर सजाते हो यहाँ !

    बहुत सार्थक सन्देश...

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  7. जो घट रहा सब स्वप्न है
    क्यों दिल जलाते हो यहाँ,
    जो दिख रहा वह है नहीं
    क्यों घर सजाते हो यहाँ !

    बहुत खूब अनीता जी - वाह. खुद की ये पंक्तियाँ याद आयीं-

    किसे खबर है अगले पल की
    फिर भी सबको चिंता कल की

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  8. है ओस की एक बूंद जो
    मोती बनी, उड़ जायेगी,
    मुड़ देख लो जरा रेत पर
    मरीचिका खो जायेगी

    खूबसूरती से कहा है कि सब नश्वर है ..फिर भी भटक रहे हैं ..

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  9. एक एक लफ्ज़ बेहतरीन है.......सत्य के घूँघट खोलता हुआ......सुभानाल्लाह |

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