पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है
एक निर्झरी सी भावों की
जाने कहाँ से फूटी भीतर,
हटा पत्थरों की सीमा को
उमड़े ज्यों जलधार निरंतर !
जाने कहाँ छिपा रखा था
पाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !
आज उमड़ ही आया अभिनव
इक सैलाब विमल अविरल सा
डूबे जिसमें संशय सारे
ज्यों संगम का तट निर्मल सा !
मीलों तक अब बिछा मोद है
सहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता है !
एक ही जीवन, एक ऊर्जा
विष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !
बहुत सुन्दर .....
जवाब देंहटाएंआभार अनुपमा जी !
हटाएंरविकर जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंकालीपद जी, शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंमाहेश्वरी जी, आभार !
हटाएंउत्कृष्ट रचना .
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावों से सजी सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंसादर !
सुंदर रचना। विरोधाभाषों के समुच्चय में जीवन के प्रवाह को शब्द देती कविता।
जवाब देंहटाएंवृजेश जी, आपने सही कहा है जीवन धारा विरोधों के बीच ही बहती है..आभार !
हटाएंसुंदर भावाभिव्यक्ति.......
जवाब देंहटाएंसाभार......
मीलों तक अब बिछा मोद है
जवाब देंहटाएंसहज हुआ हर पल मिलता है,
जैसे नभ में तिरते पंछी
पांखुरी-पांखुरी मन खिलता ..ati sundar....
निशा जी, स्वागत..
हटाएंबहुत अच्छी लगी कविता.
जवाब देंहटाएंनिहार जी, स्वागत है..
हटाएंजाने कहाँ छिपा रखा था
जवाब देंहटाएंपाहन सा दिल भारी तो था,
जाने किसकी करे प्रतीक्षा
आखिर एक पुजारी तो था !
मंत्र-मुग्ध करती सुकोमल रचना......
अरुण जी, आभार!
हटाएंवीरू भाई, अदिति जी, शिवनाथ जी आप सभी का स्वागत व आभार!
जवाब देंहटाएंभावों की निर्झरी सब सरसा गई!
जवाब देंहटाएंएक ही जीवन, एक ऊर्जा
जवाब देंहटाएंविष भी वही, वही है अमृत,
मिल जाती पगडंडी सच की
नहीं सुहाए जिसको अनृत !
अनुपम प्रस्तुति.
प्रतिभा जी व रचना जी, स्वागत व आभार!
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