होली है !
लो फिर आ गया रंगों का त्योहार
उमंगों-तरंगों में डूबने का वार
पर न जाने किसने रोक रखी है भीनी फुहार
ललक नहीं दिखती गाल रंगाने की
कौन जहमत उठाये घंटों रंग छुड़ाने की
ऐसी होली तो पहले कभी आयी न थी
मुंहतोड़ कभी ऐसी महँगाई न थी
कैसे बनें गुझियाँ खोये में मिलावट नजर आती है
तेल के दाम चढ़े कड़ाही कहाँ अब चढ़ाई जाती है
माना कि रंगों में अब उतनी चमक नहीं है
रसायनों के कारण वह मीठी सी गमक नहीं है
पर फागुन क्या जाने दुनिया का व्यवहार
आ ही जाता है डोलते-डुलाते हर बार
मदमाती ऋतु पर किसी का बस नहीं चलता
होली मनवाये बिना फागुन नहीं ढलता...
रविकर जी, बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंरसायनों के कारण वह मीठी सी गमक नहीं है
जवाब देंहटाएंपर फागुन क्या जाने दुनिया का व्यवहार
आ ही जाता है डोलते-डुलाते हर बार
बढ़िया व्यंग्य समूचे सामाजिक राजनीतिक परिवेश पे बदलाव पर .
बहुत सुन्दर और सार्थक रचना...आभार
जवाब देंहटाएंकैलाश जी, स्वागत व आभार !
हटाएंरंगों में डूबी सुन्दर पोस्ट ......होली की अग्रिम शुभकामनायें।
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