सोमवार, अगस्त 10

मन पंकज बन खिल सकता था !


मन पंकज बन खिल सकता था


 

तन कैदी कोई मन कैदी 

कुछ धन के पीछे भाग रहे, 

तन, मन, धन तो बस साधन हैं 

बिरले ही सुन यह जाग रहे !

 

रोगों का आश्रय बना लिया 

तन मंदिर भी बन सकता था, 

जो मुरझा जाता इक पल में  

मन पंकज बन खिल सकता था ! 

 

यदि दूजों का दुःख दूर करे 

वह धन भी पावन कर देता, 

जो जोड़-जोड़ लख खुश होले  

हृदय परिग्रह से भर लेता !

 

जब  विकल भूख से हों लाखों 

 मृत्यू का तांडव खेल चले, 

क्या सोये रहना तब समुचित 

पीड़ा व दुःख हर उर में पले !

 

मुक्ति का स्वाद चखे स्वयं जो  

औरों को ले उस ओर चले, 

इस रंग बदलती दुनिया में 

कब कहाँ किसी का जोर चले !

 


6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. इस बदलती दुनिया में किसी का जोर चल ही नहीं सकता।

    सादर

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