शनिवार, नवंबर 6

उत्सव के बाद

उत्सव के बाद


रह-रह कर मस्ती की गागर

जाने किसने भीतर फोड़ी,

अनजानी सी कुछ अनछूई

खुशियों की चादर है ओढ़ी !


नेह पगा मन टपकाए जो

रस की मधुरिम धार नशीली,

बिन कारण अधरों पर अंकित

कोमल सी मुस्कान रसीली !


स्मृतियाँ नहीं स्वप्न ही कोई

भीतर एक खाली आकाश,

उसी शून्य से झर झर झरता

मदमाता शुभ स्नेहिल प्रकाश !


कदमों में थिरकन भर जाता

हाथों में क्षमता वह अभिनव,

नयनों में जल प्रीत है भरा

मन अंतर में उल्लास प्रणव !


गुनगुन करता कोई विचरे

चिर चिन्मय का गान गूंजता,

तार जुड़ें जब हों अदृश्य से

ध्यान बिना साधे है लगता  !


उत्सव के उजास में डूबा

जाने कौन पाहुना आया,

मन जब अपने घर को लौटा

चैन जहाँ भर का फिर पाया !


अनिता निहालानी
६ नवम्बर २०१०    
  

7 टिप्‍पणियां:

  1. उत्सव के उल्लास में डूबा जाने कौन पाहुना आया, मन जब अपने घर को लौटा चैन जहाँ भर का फिर पाया I
    बहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है. अच्छी रचना

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  2. आदरणीय अनिता जी
    नमस्कार !

    कमाल की लेखनी है आपकी लेखनी को नमन बधाई

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  3. गुनगुन करता कोई विहरे
    चेतनता का गूंजता गान,
    तार जुड़ें जब हों अदृश्य से
    बिन साधे लगता है ध्यान I

    बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति

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  4. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|

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  5. बहुत सुंदर अनीता जी...... दिल को छू गईं .

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  6. अच्छी रचना, भाव से परिपूर्ण, उत्सव के उल्लास में डूबा ........बधाई

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  7. आप सभी का आभार और अभिनदंन उत्सव के उल्लास में डूबने के लिये!

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