मंगलवार, जनवरी 4

कौन हो तुम ?

कौन हो तुम ?

सुंदर मुखड़ा तुमने पाया
कोमल केश नशीली ऑंखें,
चमक रही चन्दन सी काया !

किन्तु नहीं तुम देह, कौन हो तुम ?

तन के भीतर धड़क रहा मन
सुख-दुख, आस-निरास का डेरा,
नित राग-द्वेष के बांधे बंधन !

किन्तु नहीं तुम मन, कौन हो तुम ?

सुमति, सुबुद्धि की अधिकारी
सही गलत का भेद जानती,
कर्म सदा करती हितकारी !

किन्तु नहीं तुम मति, कौन हो तुम ?

मन, बुद्धि पर मोहर लगाता
स्वयं को करता-धर्ता माने,
अहं भाव सदा भरमाता !

किन्तु नहीं तुम अहं, कौन हो तुम ?

अनंत प्रेम का जो है सागर
सत चिद आनंद रूप है जिसका,
छलकाता मस्ती की गागर !

वही शुद्ध स्वरूप हो तुम, हो निर्दोष शुद्ध आत्मा !

अनिता निहालानी
५ जनवरी २०११  

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर मुखड़ा तुमने पाया कोमल केश नशीली ऑंखें, चमक रही चन्दन सी काया !

    बहुत सुंदर -
    आत्मा तो निर्मल है ही..!!
    शुभकामनाएं

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  2. बहुत सही कहा आत्मा का ही इतना सुन्दर रूप हो सकता है.
    सुन्दर कविता.

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  3. आत्मा का स्वरुप सुंदरता से चित्रित!

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  4. अनीता जी,

    शब्द नहीं हैं मेरे पास उस अनकहे को व्यक्त करने के लिए ......वाह......मेरा मौन ही प्रमाण है |

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  5. बधाई स्वीकार करें सुंदर रचना के लिए |

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  6. उस अव्यक्त को संदर रूप में व्यक्त करदिया आपने!

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