बुधवार, जनवरी 12

गति वैसी होनी जानी है !

गति वैसी होनी जानी है !

कर्मों की गति अटल बड़ी है
लेकिन सीधी, सरल, सही है,
जैसा भाव, कर्म, वाणी है
गति वैसी होनी जानी है !

शुभ कर्मों से पुण्य कमाते
पाप बांधते दुष्कर्मों से,
पुण्य सदा सुखकारी जग में
दुःख लाए पाप जीवन में !

इसी तरह तो क्रम सुख-दुःख का
जारी रहता जन्म-जन्म में,
हर्षित कभी, कभी पीड़ित हो
झेला करते पड़े भरम में !

टूटे कैसे चक्रव्यूह यह
मुक्त गगन में विहरें कैसे,
एक मार्ग पर चलते चलते
मंजिल को हम पालें कैसे !

कर दें सारे कर्म समर्पित
खाली खाली सा यह मन हो,
स्वयं को साक्षी भाव में रखें
फिर हो जाये जो होना हो !

हल्का मन उड़ान भरेगा
कर्म नहीं हमको बांधेगें,
नहीं बेड़ियाँ रोकेंगी फिर
मुक्त सदा विचरेंगे जग में !

अनिता निहालानी
जनवरी २०११ 


2 टिप्‍पणियां:

  1. स्वयं को साक्षी भाव में रखें फिर हो जाये जो होना हो !-- इस पंक्ति में सब कुछ आ गया.यही तो सीखने समझने की जरूरत है.

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  2. अनीता जी,

    बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना.....ये पंक्ति सबसे अच्छी लगी....

    पुण्य सदा सुखकारी जग में
    दुःख लाए पाप जीवन में !

    सच है हम स्वयं से ही दुःख पाते है और भला यहाँ कौन है जो हमें दुःख दे सकता है...ये सिर्फ और सिर्फ हमारा चुनाव है|

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