सोमवार, जनवरी 10

पल-पल पूजित ज्यों देवालय !

पल-पल पूजित ज्यों देवालय !


परे विचारों, भावों से है  
जो शब्दों में कहा न जाये,
लेन-देन न जिसका संभव
अनुभव से ही जिसको पाएँ !

निमिष मात्र में मिल सकता जो  
परों से हल्का, फूल से कोमल,
छूकर देखें शून्य गगन को
इतना पावन, इतना निर्मल !

वह अनंत, नित फ़ैल रहा है
अविचल जैसे महा हिमालय,
सदा से है और सदा रहेगा
पल-पल पूजित ज्यों देवालय !

जल जैसे लहर बन जाता
कभी बूंद बन हमें भिगाता,
वही सरोवर बन लहराता
भेद न उस का जाना जाता !

अनजाने ही हमें लुभाता
बना बहाने निकट बुलाता
जिसके होने से ही हम हैं  
सोये जग वो सदा जगाता !

अनिता निहालानी
१० जनवरी २०११


































4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत रचना ...मंदिर की घंटियों की तरह

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  2. अनजाने ही हमें लुभाता बना बहाने निकट बुलाता जिसके होने से ही हम हैं सोये जग वो सदा जगाता

    ! आपका लेखन उत्कृष्ठ है -
    बहुत सुंदर रचना -
    बधाई स्वीकार करें -

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  3. आपने सच्चे देवालय का पता बताया है ....वर्ना लोग कहाँ कहाँ भटक रहे है ......बहार ढूंढ रहे .....भीतर की तरफ मुड़ने पर ही वो देवालय मिलेगा....अति सुन्दर रचना....

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  4. संगीताजी, बहुत दिनों के बाद आपकी उपस्थिति भली लग रही है, मंदिर की घंटियाँ भी तो जगाने का काम करती हैं ! आप सभी का आभार !

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