मुकरियाँ
हर बंधन को बुरा बतावे
अपनी मर्जी ही चलवावे
सांसत में सब आये पालक
क्यों सखी साजन, न सखी बालक !
ठूंस-ठूंस कर चारा खाए
अपनी खिदमत खूब कराए
भूल के भी डकार न लेता
क्यों सखी भैंसा, न सखी नेता !
सारे जग से पूजा जाता
सबके दिल पर धाक जमाता
पड़ें पैर सब दादा- मैया
क्यों सखी देव, नहीं रुपैया !
गली गली में उसके चर्चे
जैसे सबको देने पर्चे
दीवाने नौकर या सेठ
क्यों सखी हीरो, नहीं क्रिकेट !
शैम्पू, साबुन बेचे तेल
माल बेचना समझे खेल
मनमानी कीमत है लेता
क्यों सखी बनिया, न अभिनेता !
अनिता निहालानी
३१ जनवरी २०११
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंहा..हा...हा......माफ़ कीजिये मैं हंसी रोक नहीं पाया......बहुत सुन्दर ......आपकी ये रचना सबसे अलग है......पहेलीनुमा ये पोस्ट.....एक सटीक व्यंग्य भी करती है.......शुभकामनायें|
वाह ! वाह ! वाह !
जवाब देंहटाएंबहत सुन्दर पहेलीनुमा क्षणिकाएं |
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01- 02- 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
बड़ी कठिन शर्त रख दी है ...
जवाब देंहटाएंकैसे रुके हँसना !
आपकी रचना के पाँचों शब्दचित्र बहुत बढ़िया हैं!
जवाब देंहटाएंएक अलग ही रूप दिखा आपका इन रचनाओं में..अच्छा लगा..लेकिन हंसी रोकना मुश्किल था..बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहंसना तो नहीं रुक सकता इसे पढ़कर... ज़बरदस्त
जवाब देंहटाएं"हँसना मना है !"मुश्किल है.क्या मै इसको फेसबुक पर भेज दूँ?
जवाब देंहटाएंहौसलाअफ़ज़ाई के लिये आप सब का शुक्रिया ! जी हाँ बड़े शौक से इसे फ़ेसबुक पर भेज सकतीं हैं.
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