सूरज ऐसा पथिक अनूठा
रोज अँधेरे से लड़ता है
रोज गगन में वह बढ़ता है,
सूरज ऐसा पथिक अनूठा
नित नूतन गाथा गढ़ता है !
नित्य नए संकट जो आते
घनघोर घटाटोप बन छाते,
चीर कालिमा को अम्बर में
घोड़े सूरज के हैं जाते !
न कबीर हम न ही गाँधी
हमें कंपा जाती है आंधी,
नहीं जला सकते घर अपना
नहीं भुला सकते निज सपना !
जीवन के सब रंग हैं प्यारे
भ्रम तोडना नहीं हमारे,
रब से हम सुख ही चाहते
बना रहे सब यही मांगते !
न द्वेष रहे न रोष जगे
भीतर इक ऐसा होश जगे,
सूरज सा जलना सीख लिया
जिसने, वह हर पल ही उमगे !
बढ़िया प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई ||
शुभ विजया ||
neemnimbouri.blogspot.com
न द्वेष रहे न रोष जगे
जवाब देंहटाएंभीतर इक ऐसा होश जगे,
bahut sunder....
vijayadashmi ki shubhkamnayen...
बहुत ही आशा जगाती रचना।
जवाब देंहटाएंप्रेरक करती रचना.....
जवाब देंहटाएंBahut Sundar Likha hai aapne hamesha ki tarah.
जवाब देंहटाएंMy Blog: Life is Just a Life
My Blog: My Clicks
खुबसूरत भाव भरी कविता
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
पूरी की पूरी कविता ही शानदार है कोई पंक्ति किसी से कम नहीं|
जवाब देंहटाएं