इस जग में तू कहाँ नहीं था
जहाँ गयी यह दृष्टि मेरी
तू पहले मौजूद वहीं था,
नादानी कैसी थी अद्भुत
इस जग में तू कहाँ नहीं था !
कुदरत के जर्रे-जर्रे से
झांक रही हैं तेरी आँखें,
नयन मूंद बैठे हम पागल
जहाँ निहारा तू ही झांकें !
बादल से जो बरस रहा था
वह तेरा था मधुर संदेसा.
पछुआ बन के जो सहलाता
तेरे आने का अंदेसा !
हरी दूब की तू हरीतिमा
रवि बन तेज गगन फैलाये,
भेज रजत सी शीतल रातें
वनस्पतियों में स्वयं मुस्काए !
जब भी ढूँढा तुझको जग में
तत्क्षण तूने किया इशारा,
दिल से जो भी तुझे पुकारे
झट तूने भी उसे निहारा !
कण कण में विद्यमान है वो ... बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह ………अद्भुत्।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंमेरी बधाई स्वीकार करें ||
बहुत ही सुन्दर और मर्म टटोलती कविता।
जवाब देंहटाएंहरी दूब की तू हरीतिमा
जवाब देंहटाएंरवि बन तेज गगन फैलाये,
भेज रजत सी शीतल रातें
वनस्पतियों में स्वयं मुस्काए !
हर जगह व्याप्त है वो तो।
सादर
यह रचना मन के भाव की उत्तम अभिव्यक्ति है जिसमें अध्यात्म की झलक दिखती है।
जवाब देंहटाएंकुदरत के जर्रे-जर्रे से
जवाब देंहटाएंझांक रही हैं तेरी आँखें,
नयन मूंद बैठे हम पागल
जहाँ निहारा तू ही झांकें !
सुन्दर.... वाह!
सादर बधाई...
कुदरत के जर्रे-जर्रे से
जवाब देंहटाएंझांक रही हैं तेरी आँखें,
नयन मूंद बैठे हम पागल
जहाँ निहारा तू ही झांकें !
बादल से जो बरस रहा था
वह तेरा था मधुर संदेसा.
पछुआ बन के जो सहलाता
तेरे आने का अंदेसा !
वा वाह....वा वाह ...वा वाह .....
आनंद आ गया आपकी सरलता पर ! बधाई इस प्यारे गीत पर
आभार आपका !
जहाँ गयी यह दृष्टि मेरी
जवाब देंहटाएंतू पहले मौजूद वहीं था,
नादानी कैसी थी अद्भुत
इस जग में तू कहाँ नहीं था !
जब भी ढूँढा तुझको जग में
तत्क्षण तूने किया इशारा,
दिल से जो भी तुझे पुकारे
झट तूने भी उसे निहारा !
सुन्दर अति सुन्दर |
बहुत ही खुबसूरत...
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