मौन का उत्सव
ठठा कर हँसा वह
नजरें जो टिकीं थीं सामने
लौटा लीं खुद की ओर
और तभी गूंज उठा था सारा जंगल
उस मुखर अट्टाहस से....
ठिठक गए पल भर को
आकाश में गरजते मेघ
सुनने उस हास को
थम गया सागर की लहरों का तांडव
थमी थी जब वह हँसी
और भीतर मौन पसरा था
वहाँ कोई भी नहीं था
जैसे चला गया था कोई परम विश्राम को
अनंत समय बीता कि क्षणांश
कौन कहे
जब एक स्पंदन हुआ फिर
द्वार दरवाजे खुलने लगे
झरने लगे जिसमें से
सुगीत और आँच नेह की
जिसमें डूबने लगा था
सारा अस्तित्त्व
आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
अब महोत्सव की बारी थी..
बेह्तरीन
जवाब देंहटाएंआज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
जवाब देंहटाएंअब महोत्सव की बारी थी..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... आभार
आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
जवाब देंहटाएंअब महोत्सव की बारी थी..
वाह!
वाह: बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... आभार अनीता जी
जवाब देंहटाएंमन की गहनता को परिभाषित करती सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर अनीता जी........
जवाब देंहटाएंइस महोत्सव को पूरे आनंद से जीना चाहिए।
जवाब देंहटाएंgahan aur sundar rachna ...
जवाब देंहटाएंabhar Anita ji
वाह! मौन का महोत्सव.....परम विश्राम....
जवाब देंहटाएंवो महोत्सव प्रत्येक में घटित हो यही कामना है।
जवाब देंहटाएंजब भाव चुपचाप उजागर हो जाए तो उत्सव सा ही लगता हैं .......सादर
जवाब देंहटाएंबहूत सुंदर गहन अभिव्यक्ती..
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति.
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