गुरुवार, जून 7

मौन का उत्सव


मौन का उत्सव

ठठा कर हँसा वह
नजरें जो टिकीं थीं सामने
लौटा लीं खुद की ओर
और तभी गूंज उठा था सारा जंगल
उस मुखर अट्टाहस से....
ठिठक गए पल भर को
आकाश में गरजते मेघ
सुनने उस हास को
थम गया सागर की लहरों का तांडव
थमी थी जब वह हँसी
और भीतर मौन पसरा था
वहाँ कोई भी नहीं था
जैसे चला गया था कोई परम विश्राम को
अनंत समय बीता कि क्षणांश
कौन कहे
जब एक स्पंदन हुआ फिर
द्वार दरवाजे खुलने लगे
झरने लगे जिसमें से
सुगीत और आँच नेह की
जिसमें डूबने लगा था
सारा अस्तित्त्व
आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
अब महोत्सव की बारी थी..


15 टिप्‍पणियां:

  1. आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
    अब महोत्सव की बारी थी..
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... आभार

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  2. आज उसने स्वयं को उद्घाटित होने दिया था
    अब महोत्सव की बारी थी..
    वाह!

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  3. वाह: बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति... आभार अनीता जी

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  4. मन की गहनता को परिभाषित करती सुन्दर रचना

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  5. बहुत बहुत सुन्दर अनीता जी........

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  6. इस महोत्सव को पूरे आनंद से जीना चाहिए।

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  7. वाह! मौन का महोत्सव.....परम विश्राम....

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  8. वो महोत्सव प्रत्येक में घटित हो यही कामना है।

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  9. जब भाव चुपचाप उजागर हो जाए तो उत्सव सा ही लगता हैं .......सादर

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  10. बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति

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