शनिवार, जून 27

व्यक्त-अव्यक्त


व्यक्त-अव्यक्त 

जीवन !
कितना सार्वजनिक हो गया है आज 
कितना खुला-खुला  
पर उतना ही ढकना पड़ता है उसे 
छिपाना पड़ता है 
जब कम उघड़ा था  
तब भीतर कम छिपा था 
यह नियम है 
पेड़ जितना ऊपर जायेगा 
उसकी जड़ें उतनी गहरी होंगी 
आज हम व्यक्त कर देते हैं 
जितनी आसानी से 
आभासी दुनिया पर प्रेम 
उतना ही छुपा रहता है भीतर अप्रेम 
जब प्रेम भी अव्यक्त रहता था 
तब कुछ छुपाने को कहाँ थी जगह 
तब भरा रहता था दिल उसी भाव से 
अब छलका फिरता है सरे राह 
तो भीतर भरने को जो भी मिलेगा 
भर जायेगा 
क्यों कि यहां नहीं रहता कभी शून्य 
उसमें कुछ न कुछ झर जायेगा !

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